Sunday 7 September 2014

बलात्कार को लेकर टिप्पणी




परछाई से क्या लड़ना   

 नवभारत टाइम्स | Jan 30, 2014

महाराष्ट्र महिला आयोग की सदस्य आशा मिर्जे ने बलात्कार को लेकर जो टिप्पणी की है, वह महिला कार्यकर्ताओं के लिए झुंझलाहट पैदा करने वाली जरूर है, लेकिन उसमें कुछ नया नहीं है। पिछले दो-तीन वर्षों में न जाने कितने राजनेता और अधिकारी रेप के लिए औरतों के पहनावे और व्यवहार को जिम्मेदार बताते रहे हैं।  समाज का प्रबुद्ध वर्ग ऐसी बातें बोलने वालों पर टूटकर पिल पड़ता है और उनकी लानत-मलामत कर अपना गुस्सा शांत कर लेता है। लेकिन ऐसी ही सक्रियता वह समस्या के हल को लेकर नहीं दिखाता। और तो और, इस बारे में कभी कोई ठोस बात भी नहीं होती और स्थितियां ज्यों की त्यों बनी रहती हैं। स्थिति यह है कि इस संबंध में एक 'पॉलिटिकली करेक्ट' चिकना-चुपड़ा रवैया हमारे समाज की पहचान बनता जा रहा है। बातों में मॉडर्न, लेकिन हकीकत में बेहद पिछड़ा। इस माइंडसेट को चुनौती देने का कोई तरीका नहीं खोजा जा रहा।  पिछले कुछ समय में स्त्रियां शिक्षा और कामकाज के लिए बड़ी संख्या में घर से बाहर निकली हैं। उनकी सोच, पहनावे और लाइफस्टाइल में बदलाव आया है। इस स्थिति के अनुरूप हमारे सिस्टम को भी बदलना चाहिए, लेकिन यह बात हमारे सामाजिक विमर्श के हाशिये पर है। दिल्ली गैंगरेप कांड के बाद सरकार ने कई जरूरी कदम उठाने की बात कही थी। लेकिन इस दिशा में कोई ठोस काम आज भी नहीं हो पाया है। हुआ होता तो पिछले दिनों दिल्ली के व्यस्ततम इलाके में एक विदेशी महिला बलात्कार का शिकार न हुई होती। कहा गया था कि परिवहन व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त किया जाएगा। शुरू में इस पर कुछ काम भी हुआ। लेकिन फिर हालात पुराने ढर्रे पर लौट गए।  कई राज्यों ने छोटी-छोटी जगहों पर महिला थाना बनाने की और दिल्ली की सत्तारूढ़ पार्टी ने महिला कमांडो दस्ते के गठन की बात कही थी। लेकिन इन दोनों मोर्चों पर खुशखबरी का इंतजार आज भी बना हुआ है। हर मोबाइल हैंडसेट में अनिवार्य रूप से एसओएस अलर्ट बटन रखने की योजना भी अब तक अमल में नहीं आ पाई है। बेहतर होगा कि किसी के बयान से जूझने के बजाय बात इन चीजों पर हो। बहस करनी ही हो तो स्त्रियों को लेकर देश में बनी हुई पिछड़ी मानसिकता को बदलने पर की जाए, भले ही ऊपर से यह कितनी भी मॉडर्न क्यों न लगती हो। 
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