Sunday 7 September 2014

शिशु लिंगानुपात




दाग मिटाने का सपना

:Sun, 24 Aug 2014

लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के स्वतंत्रता दिवस भाषण ने सबका ध्यान खींचा और इसकी बहुत तारीफ भी हुई। अपने खास तौर-तरीकों और भाषा शैली के माध्यम से उन्होंने कुछ ऐसे मुद्दों को उभारा जो आज भी हमारे माथे पर किसी कलंक की तरह हैं। हालांकि जिस एक बात की उन्होंने बड़ी सुविधा से उपेक्षा कर दी वह है उनके अपने गृह राज्य का रिकॉर्ड। गुजरात का उल्लेख तेज आर्थिक विकास वाले राच्य के रूप में किया जाता है, लेकिन सच्चाई यह है कि इन सामाजिक बुराइयों से निपटने के मामले में इस राच्य का रिकार्ड बहुत प्रभावशाली नहीं है। प्रधानमंत्री की चिंता के संदर्भ में पहली बात यही है कि कन्या भ्रूणहत्या और कुपोषण आदि कारणों से शिशुओं की मृत्यु के चलते शून्य से छह वर्ष के आयु वर्ग में लिंगानुपात में गिरावट आई है और यह बहुत सही समय है जब इस पर त्वरित ध्यान दिया जाए। शिशु लिंगानुपात में गिरावट बालिकाओं के प्रति सामाजिक भेदभाव को दर्शाती है। इस आयु समूह में असमानता का प्रभाव आने वाले वषरें में बड़े आयु समूहों पर दिखेगा, जिसके परिणाम कहीं अधिक खतरनाक होंगे। 0-6 आयु वर्ग में प्रति 1000 लड़कों पर 950 लड़कियों की संख्या का अनुपात कुछ हद तक स्वीकार्य हो सकता है, लेकिन भारत में यह अनुपात 1991 में 945 और 2011 में 927 पहुंच गया और ताजा आकलनों के मुताबिक यह औसत और अधिक गिरकर 914 पहुंच गया है। सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों ने इस मसले पर अपनी व्यथा-चिंता जाहिर की है। पिछले दो दशकों में सामाजिक और राजनीतिक तौर पर प्रतिबद्ध प्रयासों के कारण पंजाब और हरियाणा जैसे राच्यों में स्थिति में सुधार हुआ है। यह दोनों ही राच्य निम्न शिशु लिंगानुपात के लिए बदनाम रहे हैं। 2011 की जनगणना रिपोर्ट से पता चलता है कि 2001 में 798 की तुलना में पंजाब में वर्तमान में शिशु लिंगानुपात 846 है, जबकि इसके पड़ोसी हरियाणा में 2011 में यह औसत 830 दर्ज किया गया, जो कि 2001 में 819 था। हालांकि शिशु लिंगानुपात के ये आंकड़े अभी भी अस्वीकार्य हैं, लेकिन इस बारे में हालिया रुझान उत्साहजनक है। दिल्ली में भी स्थिति चिंताजनक है। ऐसा इसलिए, क्योंकि दिल्ली में शिशु लिंगानुपात 2001 में जहां 868 था वहीं 2011 में यह अनुपात और अधिक गिरकर 866 पहुंच गया। यदि हम गुजरात की बात करें जिसे समूचे देश के लिए विकास के मॉडल के तौर पर पेश किया जाता है तो स्थिति कोई बहुत अलग नहीं है। गुजरात में 2001 में शिशु लिंगानुपात 883 था, जो 2011 में मामूली रूप से बढ़कर 886 पहुंच गया। निश्चित ही यहां अनुपात में मामूली बढ़त हुई है, लेकिन दक्षिण राच्यों की तुलना में स्थिति बहुत खराब कही जा सकती है। केरल में यह अनुपात 959 है, जबकि तमिलनाडु और कर्नाटक में यह अनुपात 946 है। पंजाब, हरियाण, दिल्ली और गुजरात समृद्ध राच्यों में आते हैं, जिस कारण यहां निम्न शिशु लिंगानुपात थोड़ा अधिक चिंतित करता है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, झारखंड, उत्ताराखंड, राजस्थान और जम्मू एवं कश्मीर में भी 2001 से 2011 के बीच शिशु लिंगानुपात में तेज गिरावट दर्ज की गई है। हालांकि यह भी एक सच है कि औसतन कुल लिंगानुपात 2001 से 2011 के बीच समूचे देश में बढ़ा है, जबकि तीन राच्यों बिहार, जम्मू एवं कश्मीर तथा प्रधानमंत्री के अपने आदर्श राच्य गुजरात में इसमें गिरावट दर्ज की गई है। गुजरात में 2011 में कुल लिंगानुपात 919 था, जबकि केरल में यह अनुपात 1084 और तमिलनाडु में 996 दर्ज किया गया। गुजरात नहीं, बल्कि दक्षिण के यह दोनों राच्य सामाजिक कल्याण और मानव विकास के मामले में शेष पूरे देश को बहुत कुछ सीख देते हैं। दूसरी बात यह कि भारत में बड़े पैमाने पर शौचालयों के अभाव को लेकर हमारे प्रधानमंत्री चिंतित नजर आते हैं। हालांकि इस मामले में गुजरात कोई अपवाद नहीं है। मैं पहले भी लिख चुका हूं कि खुले में शौच हमारी निजता, सुरक्षा और महिलाओं के आत्मसम्मान पर एक तरह की गंभीर चोट है। इतना ही नहीं यह हमारे बच्चों में गंभीर कुपोषण का एक बड़ा कारण भी है। दो वर्ष पहले उनके राजनीतिक सहयोगियों ने मेरे प्रति बहुत आक्रामक रुख अपनाया था जब मैंने कहा कि मंदिर से कहीं अधिक महत्वपूर्ण शौचालय हैं और यदि शौचालय नहीं तो दुल्हन नहीं। सफाई पहले और मुक्ति अथवा मोक्ष बाद में। इसी तरह मैंने कहा था कि भारत में शौचालय की तुलना में महिलाओं के पास मोबाइल अधिक हैं। यदि गंदगी का नोबेल पुरस्कार हो तो भारत निश्चित ही इसे जीतने का हकदार होगा। मेरे द्वारा दिया गया यह बयान राष्ट्र को जागरूक बनाने के लिए था ताकि इस दिशा में कुछ सार्थक कदम उठाए जा सकें, जो शौचालय निर्माण से कहीं आगे की बात थी। सफाई-स्वच्छता को लेकर आज जिस बात की सबसे अधिक आवश्यकता है वह है एक तरह की सांस्कृतिक क्रांति की। लाल किले से दिए अपने भाषण में प्रधानमंत्री स्वच्छता तक ही सीमित रहे। प्रधानमंत्री ने समूचे देश में आज भी मैला ढोने की बुराई के बने रहने पर भी ध्यान आकर्षित किया। हालांकि इस बारे में राच्यों ने अदालतों को हलफनामा दिया है कि हमारी जाति व्यवस्था द्वारा आरोपित इस सबसे खराब अमानवीय कार्य को खत्म किया जा चुका है। 2011 की जनगणना से पता चलता है कि देश में अभी भी 26 लाख लोग इस कार्य में लगे हुए हैं, जिसमें प्रधानमंत्री का गृह राच्य भी शामिल है। इसका मतलब है कि कुछ लाख परिवार अभी इस सबसे घृणित कार्य में लगे हुए हैं। सितंबर 2013 में संप्रग सरकार ने संसद में इस बारे में एक कठोर और व्यापक नया कानून पारित कराया था। महिलाओं की गरिमा और सम्मान के लिए भी इस कानून का विशेष महत्व है। गरिमा के अधिकार का यह मसला बहुत कुछ सितंबर 2005 में संप्रग सरकार द्वारा पारित कराए गए सूचना अधिकार कानून की तरह था। इसी क्रम में रोजगार का अधिकार, वन पट्टा का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, खाद्य सुरक्षा अधिकार और भूमि अधिग्रहण की स्थिति में पुनर्वास और क्षतिपूर्ति का अधिकार भी गिना जाना चाहिए। प्रधानमंत्री और उनके सहयोगियों ने संप्रग सरकार के इन कार्यक्रमों की अक्सर आलोचना की है, लेकिन हाथ से मैला सफाई की प्रथा को पूरी तरह समाप्त करने के लिए बने कानून के खराब क्रियान्वयन पर उन्हें विशेष ध्यान देना चाहिए। इतिहास में नेताओं को उनके भाषणों से नहीं, बल्कि उनके कार्य परिणामों से आंका जाएगा। 15 अगस्त को प्रधानमंत्री द्वारा उठाए गए मुद्दे नि:संदेह बहुत महत्वपूर्ण हैं और उन पर तात्कालिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है। इन समस्याओं के निदान के लिए अधिक व्यापक राजनीतिक एजेंडे पर अमल करना होगा, जिसमें केंद्र, राच्य और पंचायतें तथा नगरपालिका शामिल हैं। यह तभी संभव है जब प्रधानमंत्री खुद संबंधित पक्षों तक संपर्क करें और एक रचनात्मक भावना के साथ व्यापक सहमति कायम करें। इसके लिए जरूरी है कि प्रधानमंत्री और दूसरे राजनीतिक दलों के बीच मौलिक आमने-सामने की बातचीत हो। राष्ट्र को उनके सार्थक कदमों और सही दिशा में पहल का इंतजार है।
[लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]

No comments: