Sunday 7 September 2014

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस




दायित्वबोध की चेतना का संदेश देता

 महिला दिवस

8, MAR, 2014, SATURDAY 

बेला गर्ग

विश्व महिला दिवस महिलाओं के अस्तित्व एवं अस्मिता से जुड़ा एक ऐसा दिवस है जो दायित्वबोध की चेतना का संदेश देता है। इसमें जहां नारी की अनगिनत जिम्मेदारियों के सूत्र गुम्फित हैं, वही नारी पर घेरा डालकर बैठे खतरों एवं उसे दोयम दर्जा समझे जाने की मानसिकता को झकझोरने के प्रयास भी सम्मिलित है । यह दिवस उन चैराहों पर पहरा देता है जहां से जीवन आदर्शों के भटकाव की संभावनाएं हैं, यह उन आकांक्षाओं को थामता है जिनकी गति तो बहुत तेज होती है पर जो बिना उद्देश्य बेतहाशा दौड़ती है। यह दिवस नारी को शक्तिशाली और संस्कारी बनाने का अनूठा माध्यम है। वैयक्तिक स्वार्थों को एक ओर रखकर औरों को सुख बांटने और दु:ख बटोरने की मनोवृत्ति का संदेश है। इसलिए इस दिवस का मूल्य केवल नारी तक सीमित न होकर सम्पूर्ण मानवता से जुड़ा है। एक कहावत है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्टर मान्यता वाले औरत को मर्द की खेती समझते हैं। कानून का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई हारती रही है। इसीलिये आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए। पूरे पृष्ठ, जितने पुरुषों को प्राप्त हैं। पर विडम्बना है कि उसके हिस्से के पृष्ठों को धार्मिकता के नाम पर 'धर्मग्रंथ' एवं सामाजिकता के नाम पर 'खाप पंचायते' घेरे बैठे हैं। पुरुष-समाज को उन आदतों, वृत्तियों, महत्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर वे उस ढ़लान में उतर गये जहां रफ्तार तेज है और विवेक अनियंत्रण हैं जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध और अत्याचार। पुरुष-समाज के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने को विवश होना पड़ता है। 'मातृदेवो भव:' यह सूक्त भारतीय संस्कृति का परिचय-पत्र है।  ऋ षि-महर्षियों की तप: पूत साधना से अभिसिंचित इस धरती के जर्रे-जर्रे में गुरु, अतिथि आदि की तरह नारी भी देवरूप में प्रतिष्ठित रही है। रामायण उद्गार के आदि कवि महर्षि वाल्मीकि की यह पंक्ति- 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' जन-जन के मुख से उच्चारित है। प्रारंभ से ही यहाँ 'नारीशक्ति' की पूजा होती आई है फिर क्यों नारी अत्याचार बढ़ रहे हैं? वैदिक परंपरा दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी के रूप में, बौध्द अनुयायी चिरंतन शक्ति प्रज्ञा के रूप में और जैन धर्म में श्रुतदेवी और शासनदेवी के रूप में नारी की आराधना होती है। लोक मान्यता के अनुसार मातृ वंदना से व्यक्ति को आयु, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुण्य, बल, लक्ष्मी पशुधन, सुख, धनधान्य आदि प्राप्त होता है, फिर क्यों नारी की अवमानना होती है? नारी का दुनिया में सर्वाधिक गौरवपूर्ण सम्मानजनक स्थान है। नारी धरती की धुरा है। स्नेह का स्रोत है। मांगल्य का महामंदिर है। परिवार की पॣढ़िका है। पवित्रता का पैगाम है। उसके स्नेहिल साए में जिस सुरक्षा, शाीतलता और शांति की अनुभूति होती है वह हिमालय की हिमशिलाओं पर भी नहीं होती। सुप्रसिध्द कवयित्रि महादेवी वर्मा ने ठीक कहा था-'नारी सत्यं, शिवं और सुंदर का प्रतीक है। उसमें नारी का रूप ही सत्य, वात्सल्य ही शिव और ममता ही सुंदर है। इन विलक्षणताओं और आदर्श गुणों को धारण करने वाली नारी फिर क्यों बार-बार छली जाती है, लूटी जाती है?  पिछले कुछ दिनों में इंडिया ने कुछ और ऐसे मौके दिए जब अहसास हुआ कि भू्रण में किसी तरह अस्तित्व बच भी जाए तो दुनिया के पास उसके साथ और भी बहुत कुछ है बुरा करने के लिए। बहशी एवं दरिन्दे लोग ही नारी को नहीं नोचते, समाज के तथाकथित ठेकेदार कहे जाने वाले लोग और पंचायतें भी नारी की स्वतंत्रता एवं अस्मिता को कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है, स्वतंत्र भारत में यह कैसा समाज बन रहा है, जिसमें महिलाओं की आजादी छीनने की कोशिशें और उससे जुड़ी हिंसक एवं त्रासदीपूर्ण घटनाओं ने बार-बार हम सबको शर्मसार किया है। विश्व नारी दिवस का अवसर नारी के साथ नाइंसाफी की स्थितियों पर आत्म-मंथन करने का है, उस अहं के शोधन करने का है जिसमें पुरुष-समाज श्रेष्ठताओं को गुमनामी में धकेलकर अपना अस्तित्व स्थापित करना चाहता है। नारी अनेक रूपों जीवित है। वह माँ, पत्नी, बहन, भाभी, सास, ननंद, शिक्षिका आदि अनेक दायरों से जुड़कर सम्बधों के बीच अपनी विशेष पहचान बनाती है। उसका हर दायित्व, कर्तव्य, निष्ठा और आत्म धर्म से जुड़ा होता है। इसीलिए उसकी सोच, समझ, विचार, व्यवहार और कर्म सभी पर उसके चरित्रगत विशेषताओं की रोशनी पड़ती रहती है। वह सबके लिए आदर्श बन जाती है। बदलते परिवेश में आधुनिक महिलाओं के लिए यह आवश्यक है कि मैथिलीशरण गुप्त के इस वाक्य-ऑंचल में है दूध को सदा याद रखें। उसकी लाज को बचाएँ रखें और भू्रणहत्या जैसा घिनौना कृत्य कर मातृत्व पर कलंक न लगाएँ। बल्कि एक ऐसा सेतु बने जो टूटते हुए को जोड़ सके, रुकते हुए को मोड़ सके और गिरते हुए को उठा सके। नन्हें उगते अंकुरों और पौधों में आदर्श जीवनशैली का अभिसिंचन दें ताकि वे शतशाखी वृक्ष बनकर अपनी उपयोगिता साबित कर सकें। जननी एक ऐसे घर का निर्माण करे जिसमें प्यार की छत हो, विश्वास की दीवारें हों, सहयोग के दरवाजे हों, अनुशासन की खिड़कियाँ हों और समता की फुलवारी हो। तथा उसका पवित्र ऑंचल सबके लिए स्नेह, सुरक्षा, सुविधा, स्वतंत्रता, सुख और शांति का आश्रय स्थल बने, ताकि इस सृष्टि में बलात्कार, गैंगरेप, नारी उत्पीड़न जैसे शब्दों का अस्तित्व ही समाज हो जाए।
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आखिर क्यों हैं महिलाएं 

अपने अधिकारों से महरूम?

8, MAR, 2014, SATURDAY

गौहर आसिफ
हर साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को मनाया जाता है। इस दिन को मनाने का मुख्य उद्देश्य महिलाओं को हर क्षेत्र में समान अधिकार दिलाने के साथ महिलाओं की सुरक्षा को भी सुनिश्चित करना है। इसमें कोई शक नहीं महिलाएं हर क्षेत्र में मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं। लेकिन 21 वीं सदी के इस दौर में जहां एक तरफ  महिला सशक्तिकरण की बातें हो रहीं है, वहीं लाखों  महिलाएं आज भी अपने मूलभूत  अधिकारों से वंचित हैं। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर पूरे विश्व की महिलाएं जात-पात, रंग-भेद, वेशभूषा, भाषा से परे एकजुट होकर इस दिन को मनाती हैं। महिला दिवस महिलाओं को अपनी दबी-कुचली आवाज़ को अपने अधिकारों के प्रति बुलंद करने की प्रेरणा देता है। हमारे देश में महिलाओं के साथ भेदभाव की कहानी पारिवारिक स्तर से शुरू हो जाती है। कई बार तो लड़की को दुनिया में आने से पहले ही बोझ समझकर मां के गर्भ में खत्म कर दिया जाता है। अगर लड़की परिवार में जन्म ले भी लेती है तो लड़के के मुकाबले उसको हर स्तर पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। और तो और लड़कों के मुकाबले लड़कियों को शिक्षा देने में भी कमी की जाती है। इसके पीछे पुरूष समाज की सोच यह होती है कि लड़की पढ़ लिखकर क्या करेंगी, इसको तो शादी होकर अपने घर जाना है? घर का सारा काम करने के बावजूद भी आज भी यादातर परिवारों में महिलाएं पुरूषों के बाद ही खाना खाती है। लड़कियों के अधिकारों का कत्लेआम तो सबसे पहले पारिवारिक स्तर पर ही होता है। महिलाओं के साथ भेदभाव की यह दास्तां यहीं नहीं थमती है। आज़ादी के 66 वर्षो के बाद भी हम महिलाओं के खिलाफ  होने वाली घरेलू हिंसा पर पूरी तरह लगाम नहीं लगा पाए हैं। बाल विवाह और दहेज प्रथा की बेड़ियां आज भी हमारे समाज को जकड़े हुए हैं। बलात्कार के मामलों में लगातार इज़ाफ ा होता जा रहा है। शायद ही कोई ऐसा दिन जाता होगा कि महिलाओं के साथ उत्पीड़न और अत्याचार की दास्तां अखबारों की खबर न बनती हो। महिलाओं के साथ सामाजिक दर्ुव्यवहार के बहुत से मामले हैं जिन्हें अनदेखा करना आम सी बात हो गयी है। कुल मिलाकर हर क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति खराब है। आज महिलाओं को आरक्षण की ज़रूरत नहीं है आवश्यकता है उन्हें उचित सुविधाओं की उनकी प्रतिभाओं और महत्वाकांक्षाओं के सम्मान की और सबसे बढ़कर तो ये की समाज में नारी ही नारी को सम्मान देने लगे तो समस्या काफ ी हद तक कम हो सकती है। महिला दिवस के अवसर मैं देश की सभी महिलाओं से यही विनती करना चाहूंगा कि अपनी इस सोच को बदले कि वह पुरूष प्रधान समाज का हिस्सा हैं। महिलाएं जब तक अपनी इस सोच को नहीं बदलेंगी तब तक आगे नहीं बढ़ सकतीं।   सवाल यह है कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का मतलब क्या है? जब महिलाओं की अवस्था में कोई सुधार नहीं हो रहा है तो अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस  का भारत में क्या महत्व है? जब तक कि पुरूष वर्ग महिलाओं को सम्मान से नहीं देख सकता तब तक महिलाओं की स्थिति नहीं बदलेगी। पुरूष समाज को महिलाओं के प्रति अपने नज़रिये में बदलाव लाना होगा। नारी जाति के प्रति जब तक पुरूषों का नज़रियां नहीं बदलेगा तब तक महिलाएं अपने हक से वंचित होती रहेंगी। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस जहां एक ओर महिलाओं को अपने हक के प्रति आवाज़ बुलंद करने की प्रेरणा देता है, वहीं दूसरी ओर पुरूष समाज को नारी जाति के प्रति अपना नज़रियां बदलने की भी हिदायत देता है। लाख कोशिशों के बाद भी महिलाएं अपने बुनियादी हक से महरूम है।
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नारी-अस्मिता : 
समूची दुनिया में हाशिए पर

8, MAR, 2013, FRIDAY

डॉ ग़ीता गुप्त

आज स्त्रीवाद या स्त्री विमर्श एक फैशन बन गया है। हालांकि स्त्री के मुद्दों पर चिंता जतलाने के लिए आन्दोलन भी हो रहे हैं। परन्तु यह कोई नई बात नहीं है।  नारी अस्मिता और उससे जुड़े तमाम सवालों का हल दो सौ से भी अधिक वर्षों से ढूंढ़ा जा रहा है तथापि समस्याएं यथावत् हैं। अठारहवी शताब्दी के मय में ही दुनिया की तमाम स्त्रियों को बराबरी का हक़ दिलवाने की ज़रूरत महसूस की गई और पहली बार राइट्स ऑफ विमेन के मायम से स्त्री-अधिकारों के लिए आवाज़ मुख़र हुई। इंग्लैण्ड की मैरी वोलस्टोन ाफ्ट पहली महिलावादी थीं जिन्होंने महिला शिक्षा और अधिकारों को लेकर महिला आंदोलन की शुरूआत की। अपनी पुस्तक अ विंडीकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ विमेन% में उन्होंने स्त्री के पारिवारिक एवं नागरिक जीवन में अधिकारों व कर्तव्यों को परिभाषित किया है। उन्होंने शोषण से स्त्री की मुक्ति हेतु पुरुषों में बदलाव की आवश्यकता पर बल दिया है। स्वीडन की फ्रेडरिका बेमर ने भी 1849 में स्त्री जीवन की विडंबनाओं को स्वयं अनुभव किया। उन्होंने अमेरिका जाकर वहां की स्त्रियों की स्थिति का अययन किया। फिर स्वीडन लौटकर अपना उपन्यास %%हेर्था%%लिखा। जिसमेंस्त्री को परम्परागत भूमिका से मुक्त रूप में चित्रित किया। यही उपन्यास स्वीडन की संसद में स्त्रियों के हित में बनाये जाने वाले क़ानूनों का आधार बना। 1791में फ्रांस में ओलिम्पी दे गाज द्वारा महिलाओें के नागरिकअधिकारों पर घोषणापत्र प्रस्तुत किया गया। इसमें स्त्रियों के लिए पुरुषों के समान अधिकारों की घोषणा की गई। भारत में सरोजिनी नायडू पहली ऐसी महिला थीं जिन्होंने एनी बेसेण्ट और अन्य लोगों के साथ मिलकर भारतीय महिला संघ की स्थापना की। उन्नीसवीं शताब्दी की महिला आन्दोलनकारियों में फ्रांस की सिमोन द बोउवा का नाम सर्वोपरि है। उनकी पुस्तक %द सेकेण्ड सेक्स% स्त्री विमर्श की चर्चित कृति है। सिमोन मानती थी%% कि स्त्री का जन्म भी पुरुष की तरह ही होता है मगर परिवार व समाज द्वारा उसमें स्त्रियोचित गुण भर दिए जाते हैं। प्रसिध्द दार्शनिक यां पाल सार्त्र के साथ बिना विवाह किए संगिनी की तरह रहने वाली सिमोन ने स्त्री अधिकारों और मातृत्व की नयी परिभाषा गढ़ी। 1970 में फ्रांस के नारी मुक्ति आंदोलन में भाग लेने वाली सिमोन स्त्री के लिए पुरुष के समान स्वतंत्रता की पक्षार थीं। प्रसंगवश यहां अमेरिका की रॉबिन मोर्गन, बैटी फ्रीदां, एंड्रिया ड्वार्किन, सुजेन फलूदी और ग्लोरिया स्टीनेम जैसी प्रसिध्द महिलावादियों का नामोल्लेख उचित है। रॉबिन ने महिला-आन्दोलन पर %सिस्टरहुड इज़ पावरफुलजैसी चर्चित पुस्तक लिखी। 1960के दशक में वे लेस्बियन के रूप में जानी गईं और महिला मुक्ति आन्दोलन में भी सयि रहीं। बैटी फ्रीदां अमेरिका में राष्ट्रीय महिला संघ की संस्थापक और अध्यक्ष रहीं। उन्होंने अपपुस्तक %द फेमिनिन मिस्टीक% में गृहिणी शिक्षा पर प्रश्न उठाया। वे गर्भपात-क़ानून की विरोधी और समान अधिकारों की समर्थक थीं। इस विवेचन का आशय यही है कि समान अधिकारों के लिए महिलाओं का संघर्ष नया नहीं है। यह सर्वकालिक और सार्वदेशिक है। महिलाएं चाहे जिस भी नस्ल, वर्ण, जाति, धर्म, संस्कृति या देश की हो, उनके संघर्ष लगभग एक समान हैं। आश्चर्यजनक तो यह है कि स्त्रीवादियों के आन्दोलन की जो लहर पहले पहल अठारहवी शताब्दी के मय में उठी थी, अब तक अपनी मंजिल नहीं पा सकी है। यद्यपि स्त्री की एक नयी छवि अवश्य उभर रही है। सदियों से बांनों में जकड़ी स्त्री अब स्वावलंबी और सबला बनने हेतु सचेष्ट है। अतएव विश्व के अधिकतर देशों में सकल घरेलू उत्पाद में उनकी सयि भागीदारी बढ़ रही है। अमेरिका, कनाड़ा, चीन, ब्राजील, मेक्सिको, युगांडा, भारत और बांग्लादेश जैसे तमाम विकसित व विकासशील देशों में जहां रोजगार सृजन का कार्य व्यापक पैमाने पर हो रहा है, वहां की समृध्दि का आधार स्तंभ महिलाएं हैं। इस महिला श्रम की अनदेखी नहीं की जा सकती। प्रथम विश्व युध्द के उपरान्त विश्व की आर्थिक एवं सामाजिक उन्नति में महिलाओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। लेकिन सभी क्षेत्रों में अपनी क्षमता साबित कर देने के बावजूद समूची दुनिया में आज भी स्त्री हाशिए पर है। मधय एशिया के सबसे बड़े देश ईरान में 36 विश्वविद्यालयों ने 80 अलग-अलग पाठयमों में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है। ऐसे पाठयमों में इंजीनियरिंग,कम्प्यूटर साइन्स,नाभिकीय भौतिकी,अंग्रेजसाहित्य और पुरातत्व जैसे विषय भी शामिल हैं। आर्यों की ज़मीन माने जाने वाले ईरान में स्त्रियों की ज़ुबान पर ताले हैं। उन्हें सिर्फ़ चेहरा खुला रखने की आज़ादी है। वहां कोई महिला संगठन नहीं है, जो महिला अधिकारों की बात करें। कोई महिला राजनेता नहीं है। तीन वर्ष पूर्व विरोधी प्रदर्शन के दौरान एक युवती नेहा आग़ा सुल्तान मारी गई थी तदुपरान्त किसी महिला ने आगे आने की हिम्मत नहीं दिखाई। ईरान की नोबेल शांति पुरस्कार विजेता शीरीन इबादी ईरान से बाहर रहकर स्त्रियों की आज़ादी की लड़ाई लड़ रही हैं। वैश्विक स्तर पर स्त्री की स्थितियों में अधिक अन्तर नहीं है। हम चाहे सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक या पारिवारिक परिदृश्य की बात करें, हर कहीं स्त्री का शोषण बदस्तूर जारी है। धार्मिक परिदृश्य में झांके तो इस्लामिक कट्टरपंथियों को महिलाओं के प्रति संकीर्णता के लिए अक्सर ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। जैसे, नवनिर्मित व आधुनिक राष्ट्र इज़रायल भी अपनी स्त्रियों को %पवित्र दीवाल% को पूजने नहीं देता। जबकि 60 वर्ष पूर्व यह प्रतिबां नहीं था। धार्मिक नेता और समाज के ठेकेदार युवतियों के रहन-सहन, परिाधन, संचार साधनों के उपयोग और जीवनसाथी के चयन जैसे सर्वथा निजी मामलों में भी अपनी राय थोपकर उनकी स्वतंत्रता का हनन करते हैं। ग़ौरतलब है कि फ्रांस की राजधानी पेरिस में महिलाओं को पैण्ट पहनने का अधिकार अब जाकर मिल पाया है। फ्रांस सरकार ने दो सौ वर्ष पुरानी पाबंदी हटाकर हाल ही में महिलाओं को परिाधन सम्बंधी यह स्वतंत्रता दी है। यहां सऊदी अरब का जि भी ज़रूरी है। जहां सऊदी औद्योगिक सम्पत्ति प्राधिकरण (मोडोन) को आधुनिक दुनिया के हिसाब से केवल महिलाओं के लिए एक शहर बसाने का काम सौंपा गया है। यह कार्य अगले वर्ष आरंभ होगा। नये शहर में कड़े इस्लामी क़ानून के दायरे में ही महिलाओं को काम करने की अनुमति होगी। हालांकि सऊदी शरिया कानून महिलाओं के काम पर रोक नहीं लगाता किन्तु आंकड़ों से स्पष्ट है कि कार्य स्थल पर महिलाओं की भागीदारी मात्र 15 प्रतिशत है। माना जा रहा है कि अलग शहर की योजना होने से देश के विकास में महिलाएं अधिक सयि भूमिका निभा सकेंगी। युवतियों को इसमें काफ़ी रोजगार मिलेगा। मोडोन के उप महानिदेशक सालेहअल रशीद के अनुसार, महिलाओं के लिए दूसरे औद्योगिक शहर पर भी काम अब हो रहा है और देश के कई भागों में सिर्फ़ महिलाओं के लिए उद्योग स्थापना की भी योजना है। महिलाओं के लिए पृथक उद्योग धां ध ों की बात तो समझ में आती है लेकिन अलग शहर बसाने की स्थिति में परिवार और विवाह जैसी अवध ारणाओं का क्या होगा ? यह जिज्ञासा स्वाभाविक है। वस्तुतऱ् महिलाओं के संदर्भ में रोज़गार, शिक्षा और क़ानून को लेकर समानता की मांग बेमानी नहीं है। क्योंकि वे हर जगह भेदभाव से पीड़ित हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यम (यूएनड़ीपी) क़े दस्तावेज़ मानविकास रपट से ज्ञात होता है कि समूचे विश्व में महिलाएं शोषण का शिकार हैं। पुरुष प्रधान समाज में उसकी उन्नति के मार्ग में हर क़दम पर अवरोध दिखाई देते हैं। जनसंख्या व विकास पर जब काहिरा में विश्व सम्मेलन हुआ तो धार्मिक पुरोहितों ने गर्भपात और अनचाहे गर्भ को रोकने के लिए सम्मेलन के प्रस्ताव का विरोध किया। फलतऱ् एक स्त्री-हितैषी निर्णय खटाई में पड़ गया। यह भी कटु सत्य है कि संसार के दो तिहाई कठिन परिश्रम वाले कार्य महिलाएं ही करती हैं परन्तु इसके बदले उन्हें बहुत कम पारिश्रमिक मिलता है। उन्हें पुरुषों की आय के दसवें भाग के बराबर मिल पाता है और सम्पत्ति तो बमुश्किल सौ में से एक महिला के नाम पर होती है। दरअसल स्त्री अपने परिवार के लिए अथक परिश्रम करती है पर उसके श्रम को कोई सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं हैं। भारत में तो कर्तव्य और प्रेम की ओट में उसके श्रम की अनदेखी कर दी जाती है। आज नारी का अस्तित्व खतरे में है। यदि हम भारत की बात करें, तो यहां परिवार की व्यवस्था के लिए एक सौभाग्यवती ब्याहता की मांग होती है। मगर कम्पनियों और बाज़ारवादी व्यवस्था को स्वयं निर्णय लेने में सक्षम, स्वावलंबी और सौन्दर्यचेता स्त्री चाहिए। इन दोनों बातों को यान में रखते हुए मीडिया स्त्री की जो छवि रच रहा है वह नकारात्मक अधिक है। नारी मुक्ति आन्दोलन स्त्री की स्वतंत्रता पर बल देता है, जबकि असल मुद्दा यह है कि उसे इंसान के रूप में मान्यता दी जाए। तब उसे पुरुष के समान अधिकारों की मांग अलग से करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। देश और समाज के प्रति उसकी भूमिका और उत्तरदायित्व इंसान के रूप में ही सुनिश्चत हो जाएंगे। मगर दु:ख की बात यह है कि भारतीय महिलाओं की स्थिति सरकार के समस्त प्रयासों के बावजूद दयनीय होती जा रही है। आज सबसे बड़ी समस्या स्त्री की स्वतंत्रता की नहीं, सुरक्षा की है। दुधमुंही बच्ची से लेकर वृध्दा तक के साथ बलात्कार हो रहे हैं। समूचे विश्व में स्त्री यौन उत्पीड़न और हिंसा से जूझ रही है। उसकी महत्वाकांक्षाओं के लिए समाज में कोई स्थान नहीं है। उसे इसके लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। आख्धिर कब तक उसकी योग्यता और क्षमता की अवहेलना होती रहेगी? कब तक उसका शोषण जारी रहेगा? औपचारिक तौर पर किसी एक दिन %महिला दिवस% मनाने से उसकी समस्याओं का हल नहीं निकलेगा। अब विश्व महिला दिवस एक विशेष दिन के रूप में मनाने की बजाय ऐसी पहल की जानी चाहिए जिसमें हर दिन महिला अपने को सुरक्षित और सम्मानित महसूस कर सके। अपने देश की उन्नति में एक इन्सान और मज़बूत नागरिक के रूप में योगदान कर सके। अपने स्त्री होने पर गर्व कर सके।
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कुदरत की सबसे अनमोल रचना को सलाम

8, MAR, 2014, SATURDAY 

 विनिता झा

नारी को कुरदत की सबसे अनमोल आकृतियों में से एक कहा गया है। कहते है भगवान ने औरत बनाई और औरत पर इस सृष्टि को बनाने और बनाए रखने का भार भी सोप दिया। तक से लेकर अब तक नारी ने इस बागडोर को बड़े ही अच्छे ढंग से संभालना भी है और आगे भी संभालती रहेगी। नारी... के कई रूप हैं। नारी जननी है।.. मार्गदर्शिका है..  बेटी है.. बहन है.. प्रेमिका है, पत्नी है और सबसे बढ़कर एक बहुत अच्छी दोस्त भी है। हमारे देश में आजकल हर रोज ही कोई ना कोई दिवस मनाया जाता है। वैसे तो भारत को त्यौहारों का ही देश कहा जाता है पर वह सप्ताह या माह के अंतराल बाद ही आते हैं। कैलेंडर में देखें तो नये साल से शुरू होकर वैलेंटाइन डे, होली से क्रीसमस तक हर रोज कोई न कोई खास दिन होता है। आज महिला दिवस है। पूरा विश्व इस दिन महिलाओं को सम्मान देता है, लेकिन भारत में तो नारी की पूजा ही होती है। लेकिन क्या सिर्फ  आज के ही दिन महिला सम्मान की बातें करने से महिला सम्मान की सुरक्षा हो जाती है या ये सिर्फ एक खाना पूर्ति ही है? जरूरत इस बात की है कि महिलाएं खुद अपने अस्तित्व को पहचाने। इस देश में नारी को श्रध्दा, देवी, अबला जैसे संबोधनों से संबोधित करने की पंरपरा अत्यंत प्राचीन है। नारी के साथ इस प्रकार के संबोधन या विशेषण जोड़कर या तो उसे देवी मानकर पूजा जाता है या फिर अबला मानकर उसे सिर्फ   विलास की वस्तु मानी जाती रही है। लेकिन इस बात को भुला दिया जाता है नारी एक रूप शक्ति का भी रूप है, जिसका स्मरण हम औपचारिकता वश कभी-कभी ही किया जाता रहा है। नारी मातृ सत्ता का नाम है जो हमें जन्म देकर पालती पोसती और इस योग्य बनाती है कि हम जीवन में कुछ महत्तवपूर्ण कार्य कर सकें। फिर आज तो महिलाएं पुरुषों के समान अधिकार सक्षम होकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी प्रतिभा और कार्यक्षमता का पंचम लहरा चुकी है। उसने आज समाज को साबित कर दिया है कि वे भी किसी से किसी मामले में कम नहीं हैं। नई और आधुनिक शिक्षा तथा देश की स्वतंत्रता में नारी को घर की चारदीवारी से बाहर निकलने का अवसर दिया है, जरूरत इस शिक्षा के व्यापक प्रचार प्रसार की है जिससे ग्रामीण इलाकों की महिलाएं भी लाभान्वित हो सकें साथ ही महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति यादा से यादा जागरूक हो सकें। प्राचीन काल से चली आ रही परपंराओं पर भी नजर डाले तो ऐसा कोई भी युग नहीं है जिसके किसी भी कालखंड़ ये नहीं मिलेगा जहां नारी का किसी नव निर्माण में कोई सहयोग नहीं रहा हो, वैदिक युग की बात करें तो आर्यावर्त जैसे महान राष्ट्र के निर्माण की परिकल्पना में निश्चय ही गार्गी, मैत्रयी, अरूधंती जैसे महान् नारियों निश्चित ही योगदान रहा है। पौराणिक काल से चली आ रही ऐसी कई कथाएं हैं जिनमें नारियों की महानता की बातें हैं। झांसी की रानी, सरोजनी नायडु और इन जैसी ना जाने कितनी ही नारियों ने अपने बल पर देश का नाम रोशन किया और देश के लिए कुर्बान भी हो गई। हर धर्म, हर जाति, हर वर्ग की औरत की पीड़ा एक जैसी ही है। वो किसी भी धर्म, किसी भी जाति, किसी भी वर्ग में न सुरक्षित है न सुखी। औरत होने की सजा वो हर कहीं किसी न किसी रूप में भुगत रही है। हमने माना कि समय रहते औरत की स्थिति में थोड़ा सुधार आया है, मगर यह थोड़ा सुधार हमारे लिए काफी नहीं है। हमें भी ओर चाहिए। सबसे पहले तो हमें औरत के बीच से जाति, धर्म और वर्ग की संकीर्णताओं को समाप्त करना होगा। ये सब औरत को न केवल कमजोर बल्कि यथास्थितिवादी भी बनाती हैं। हमें इस धारणा को जड़ से खत्म करना होगा कि धर्म, जाति और वर्ग के हित औरत के हित से पहले हैं। इन संकीर्णताओं के बीच औरत अपने हितों को दरकिनार कर देती है। क्योंकि अंधा समाज उससे यह सब करने और मानने के लिए कहता है। कहता ही नहीं, बल्कि दबाव भी बनाता है। औरत को अब दबाव में रहने और जीने की आदत को त्यागना होगा। क्योंकि इस दवाब में न कोई सुख है, न ही होगी। ये सोच तभी समाज की बदल सकती हैं, जब हम प्रत्येक नारी को शिक्षित करने-बनाने का संकल्प लेंगे। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का शैक्षिक स्तर अब भी नीचे है। वैसे तो शहरों में भी महिलाओं की स्थिति ठीक नहीं है लेकिन अगर हम शहरों की बात छोड़ गांव-कस्बों का रूख करें, तो नारी-शिक्षा की स्थिति अब भी सोचनीय है। पुरानी धारणाओं पर चलने वाले परिवार आज भी लड़कियों को स्कूल भेजने में कतराते हैं। उनकी मान्यता है कि लड़की यादा पढ़ लिखकर क्या करेगी क्योंकि आगे चलकर करना उसे चौका-बर्तन ही है। हमें यही कोशिश तो करनी है कि हम लड़कियों-महिलाओं की इस स्थिति को बदल सके और उन्हें एक नई दुनिया में लेकर जाएं, जहां शिक्षा और ज्ञान का विस्तार हो। इससे सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि समाज और परिवारों की तमाम रूढ़ स्थापनाएं खत्म होंगी। बेटा-बेटी का फर्क मिटेगा और तो और उसे जाति, धर्म और वर्ग के बंधनों से मुक्ति मिलेगी। इस मिशन को पूरा करने के हमें ही आगे आना होगा चूंकि पुरानी एक कहावत है औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन या दोस्त होती हैं। तो यह हम पर ही निर्भर करता है कि हम दोस्ती निभाना चाहते है या दुश्मनी। हम सब जानते हैं आज भी हम महिलाओं के समक्ष एक नहीं हजारों चुनौतियां हैं। लेकिन हमें विश्वास है कि हम उन सब पर पार पा जाएंगी, क्योंकि अब हम अबला नहीं, एक शक्ति हैं। कल्पना कीजिए, उस समय की, जब हमारे देश-समाज की हर स्त्री शिक्षित होगी, तमाम बंधनों को तोड़ चुकी होगी, अपनी एक अलग पहचान बना चुकी होगी शायद तभी हम गर्व के साथ कह-बोल सकेंगे कि देखो, नए दौर और नई सदी की स्त्री जा रही है। मगर, यह सब संभव तभी हो सकेगा, जब हम अपने आस-पास हर लड़की, हर महिला को शिक्षित करने का फैसला लेंगे।  अतं: आज नारी केवल घर की चारदीवारी की रौनक बढ़ाने वाली वस्तु मात्र बनकर नहीं रह गई है। उसे भी अपनी जिंदगी जीने का हक है। लेकिन क्या वे भी अपनी जिंदगी अपने मन के मुताबिक आज भी जी सकती है? क्या कभी अपने सोचा है कि पुरुषों की तुलना में औरत का शरीर कमजोर होते हुए भी आखिर औरतों को पुरुषों की तुलना में मजदुरी कम क्यों दी जाती है? औरत से काम यादा कराया जाता है लेकिन मर्द को पैसा अधिक दिया जाता है। इसके अतिरिक्त क्या आजादी के इतने सालों बाद भी क्या हम सच में आजाद है? ना जाने कितने ही भेदभाव आज भी किए जा रहे है, अब हमें केवल एक दिन का सम्मान पाकर खुश नहीं होना, हमें हर दिन, हर पल और हर कदम पर सम्मान चाहिए और अपना हक भी। तो आज इस महिला दिवस पर हम संकल्प करते है कि हम इस भेद को मिटाकर रहेगें।
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कैसे मिलेगा हक

8, MAR, 2013, FRIDAY 

आशा त्रिपाठी

महिलाओं के हक के सवाल पर 6 मार्च को जब मिलेनियम स्टार अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लाग पर लिखा कि 'महिलाओं को भी पूरी आजादी से जीने का हक मिलना चाहिए। उनके खिलाफ अत्याचार रुकने चाहिए। महिलाओं का अपमान बंद होना चाहिए। इसे सम्मान के साथ स्वीकारना चाहिए कि हमारे होने महिलाओं में अहम योगदान महिलाओं का ही है। महिलाओं के खिलाफ उठने वाले हाथों को रोकना चाहिए और उनकी रक्षा की जानी चाहिए।' उन्होंने महिलाओं के खिलाफ अत्याचार रोकने के लिए चलाए गए अंतरराष्ट्रीय अभियान के प्रति अपना समर्थन जताया। इस अभियान की शुरुआत वर्ष 2008 में की गई थी। इसके तहत महिलाओं एवं पुरुषों से घरेलू हिंसा के खिलाफ खड़े होने का आह्वान किया जाता है। दुनिया भर में विधा के लिए आदर के साथ पहचान रखने वाले अमिताभ बच्चन की बातें तो वाकई अच्छी हैं, पर क्या शक, संदेह और घृणा की नींव पर खड़ी महिलाओं की रक्षा और उन्हें हक दिलाने की योजनाएं मूर्तरूप ले पाएंगी। यह सवाल सिर्फ आज नहीं, बल्कि वर्षों से उठते आ रहे हैं, किन्तु जवाब के तौर अब तक कुछ खास हाथ नहीं लगा है। खैर, हालात जो भी हो पर इसके लिए सिर्फ पुरुषों को ही दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए, क्योंकि अपनी दुर्गति के लिए महिलाएं भी कम दोषी नहीं हैं।  यह सबको पता है कि महिलाओं की दशा सभ्यता व संस्कृति का पैमाना होती है। यदि हमें किसी भी सभ्यता या संस्कृति के स्तर का निर्धारण करना है, तो महिलाओं की सामान्य दशा, उनके अधिकारों और स्तर को जानना जरूरी होता है। यदि समाज में स्त्रियों का स्तर ऊंचा है और तमाम अधिकार प्राप्त हैं तो उस सामाजिक संस्कृति को श्रेष्ठ कह सकते हैं।  मूल विषय की जानकारी लेने से पहले संक्षिप्त में प्राचीनकाल की चर्चा जरूरी है। प्राचीनकाल में भी सामाजिक व्यवस्था आज ही की तरह (कुछ क्षेत्रों को छोड़कर) पितृ सत्तामक थी।  स्त्रियों को बौध्दिक, आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठा प्राप्त थी।  महिला व पुरुष में कोई भेद नहीं था।  धार्मिक कार्यों, सामाजिक उत्सवों, समारोहों आदि में वो पुरुषों के साथ समान आसन ग्रहण करती थीं। पुत्र और पुत्री समाज में सामान रूप से शामिल होते थे। पुत्री का जन्म चिंताजनक नहीं था। बाल विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा नहीं थी। समारोहों और उत्सवों पर स्त्रियां श्रृंगार करती थीं और सभी त्यौहारों, समारोहों और उत्सवों में पुरुषों के सामान ही सम्मिलित होती थीं।  उनके घर के बाहर निकलने, घूमने-फिरने तथा आने-जाने की स्वतंत्रता पर कोई अंकुश नहीं था।  उनकी नैतिकता और सदाचार का स्तर भी ऊंचा था। वेदान्त में भी विदुषी अत्रैयी का जि मिलता है। विदुषी स्त्रियां सभाओं में दार्शनिक विचार-विमर्श और तर्क-वितर्क में भाग लेती थीं। कुछ विदुषी स्त्रियों ने तो ऋग्वेद की ऋचाएं भी रचीं। इस प्रकार भारत की नारी को बौध्दिक गौरव व सम्मान प्राप्त था। इसी क्षेत्र में कई अन्य विदुषियां रही हैं जिनमें लोपमुद्रा विश्ववारा, सिकता, विवावरी, घोष, इंद्राणी साची, सुलया, मैत्रैयी, गार्गी, वाचवनवि, खेमा, सुभद्रा, उपरा, उदुम्बरा, केशा, जयंती, सुभा, सुमेघा, अनोपमा आदि का नाम शामिल हैं। तब महिलाएं केवल विदुषी ही नहीं, अपितु वीर व साहसी भी हुआ करती थीं।  विवाह के पश्चात भी शिक्षा जारी रख सकती थीं। उनके द्वारा अध्यापन कार्य किया जाता था। बताते हैं कि भिक्षुणी खेमा की विद्वता की प्रशंसा सुनकर कौशल सम्राट प्रसन्नजीत स्वयं उनकी सेवा में गए थे।  जयंती, रेवा, रोहा, माधवी, अनुलक्ष्मी, पहई, दतई और शशिप्रभा आदि भी गुप्तकाल में महान, विदुषी व कवित्रियां हुई हैं।  इसी तरह अन्य कई विदुषियों का जि प्राचीनकाल में मिलता है जो स्त्रियों की उच्च स्तर की शिक्षा की ओर इंगित करता है। यूं कहें कि पुरातनकाल में नारी शक्ति का अत्यधिक महत्व था। वैदिक काल में भूमि की नारी, सामाजिक-धार्मिक व आध्यात्मिक क्षेत्रों में पुरूष की सहभागिनी थीं। गौरवपूर्ण अधिकार व सम्मान प्राप्त नारी आदिकाल से मां, बहन, प्रेयसी, पत्नी व पुत्री आदि रिश्तों को निभाती चली आ रही है। वैदिक काल में नारी ने अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, समाज व जीवन के हर क्षेत्र में अपना गौरव व सम्मान बढ़ाया था। भारत में हिन्दू शासकों के शासनकाल तक नारी का सम्मान उच्चकोटि का था। मध्य काल में भारत में मुगल सल्तनत के विस्तार के साथ-साथ, भारतीय समाज व नारी की स्थिति बिगड़ती गई एवं नारी के सामने एक के बाद एक समस्यायें पैदा होती रहीं। मुगलकाल वह काल था, जब भारतीय नारी ने अपने सतीत्व के रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति देने का कार्य किया। मध्यकाल में भारतीय नारी का जीवन संकटग्रस्त था। अंग्रेजी हुकूमत से लम्बे संघर्ष व अनगिनत बलिदानों के उपरांत आजादी हासिल करने के बाद, आजाद भारत के संविधान में भारतीय नारी को तमाम अधिकार प्रदान किये गये। आजाद भारत में दिनों-दिन राजनैतिक-सामाजिक व शिक्षा-रोजगार के क्षेत्रों में महिलाओं ने तेजी से तरक्की हासिल की। एक प्रधानमंत्री व कुशल प्रशासक के रूप में इंदिरा गांधी  ने विश्व पटल पर अपने अमिट हस्ताक्षर कर के भारत-भूमि की शान में बढ़ोतरी की। वर्तमान में भी राजनैतिक क्षेत्र में महिला शक्ति का वर्चस्व कायम है। सोनिया गांधी, मीरा कुमार, ममता बनर्जी, मायावती, जयललिता आदि की नेतृत्व क्षमता व कार्यशैली का लोहा विपक्षी राजनैतिक दल भी मानते हैं। कुछ माह पहले तक देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति पर भी नारी शक्ति के रूप में प्रतिभा पाटिल आसीन थीं।  गौरवशाली इतिहास और कानूनी अधिकारों के बावजूद आम महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। ग्रामीण अंचलों में नारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार होने के बावजूद अब तक अज्ञान की कालिमा मिटी नहीं है। अशिक्षित महिलाओं का अपने अधिकारों की जानकारी न होना, उनका अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न होना ही महिला की पीड़ा का सबसे बड़ा कारण है। विभिन्न कार्यमों के माध्यम से सरकारें महिलाओं को जागरूक करने का प्रयास गैर सरकारी संगठनों व सरकारी महकमों के माध्यम से जारी रखे हुए हैं। यह सत्य है कि बगैर शैक्षिक व कानूनी जागरूकता के वर्तमान युग में महिलाओं को अधिकार व सम्मान मिलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। यह दुर्भाग्यपूर्ण किन्तु सत्य है कि 'यत्र नारी पूयंते, तत्र देवता रमन्ते' की अवधारणा वाले देश में सामाजिक व पारिवारिक स्तर पर स्त्री की दशा सोचनीय व दयनीय है। समाज के नैतिक पतन का परिणाम है कि जन्मदात्री नारी को पारिवारिक हिंसा का शिकार होना पड़ता है। महिलाओं को भारत में कानून प्रदत्त तमाम अधिकार हैं। परिवार व रिश्तों को संजाने-संवारने की महती दायित्व निभाने वाली आम महिला आज अपने अधिकारों से वंचित है। जागरूकता व शिक्षा के अभाव में आम महिला के साथ पारिवारिक स्तर पर सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। परिवार की इजत, बाल-बच्चों के पालन-पोषण एवं चौके-चूल्हे के चव्यूह में फंसी नारी मन मसोस कर, अपना कर्तव्य निभाती चली जा रही है। यह ठीक है कि शीर्ष पदों पर महिलाएं पहुंच कर महिला शक्ति का परचम लहरा रहीं है। परन्तु समाज की प्राथमिक इकाई परिवार में महिला अपनी जिम्मेदारियों एवं घरेलू हिंसा के पाटों के बीच पिसती जा रही है। भारत में हुए एक सर्वे के परिणामस्वरूप हर 14 घंटे में एक महिला का रेप होता है। भारत बहुत ही तेजी से बढ़ने वाली इकॉनोमी है। घरेलू हिंसा यहां की महिलाओं के मानसिक तनाव का एक कारण है। हाल में ही हुए कुछ ऐसे मामले हुए हैं जो जनता का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं।  2012 में 'थॉम्पसन रॉयटर्स फाउंडेशन' के पोल के मुताबिक, भारत में महिलाओं की स्थिति अन्य जी-20 देशों के मुकाबले बहुत ही खराब है। मेरा मानना है कि स्थितियां तो और भी खराब होंगी, क्योंकि महिलाओं के प्रति भारतीयों की सोच में बदलाव कम ही दिख रहा है। 21 वीं सदी के 13 वें वर्ष में भी लोगों के मन में महिलाओं के प्रति घृणा, शक और संदेह की स्थिति देखी जा रही है। इस स्थिति में यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि महिलाओं को उनका हक मिलेगा।
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स्त्री अधिकार और आंबेडकर

Monday, 14 April 2014

सुजाता पारमिता

जनसत्ता 14 अप्रैल, 2014 : आंबेडकर ने कहा था, ‘मैं नहीं जानता कि इस दुनिया का क्या होगा, जब बेटियों का जन्म ही नहीं होगा। ’ स्त्री सरोकारों के प्रति डॉ भीमराव आंबेडकर का सर्मपण किसी जुनून से कम नहीं था। छियासी साल पहले, अट्ठाईस जुलाई 1928 के दिन, उन्होंने बंबई विधान परिषद में स्त्रियों के लिए प्रसूति से जुड़े पहलुओं से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण विधेयक पेश किया गया था। उसका जोरदार समर्थन करते हुए उन्होंने कहा था कि यह देश के हित में है कि मां को बच्चे के जन्म के दौरान आराम मिले। सरकारी और निजी, दोनों क्षेत्रों के अंतर्गत आने वाले तमाम कारखाने, खदान या ऐसे सभी उपक्रम जहां भारी संख्या में स्त्रियां मजदूरी करती हैं और जो खतरनाक हैं और जिनमें काम करना उनके लिए जानलेवा भी सिद्ध हो सकता है, यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे इस खर्च का वहन करें, क्योंकि वे स्त्री श्रमिकों को तभी काम पर रखते हैं, जब उन्हें इससे ज्यादा फायदा होता है। इस विधेयक का मुख्य आधार अन्य सुविधाओं के साथ ही महिला श्रमिकों के लिए वेतन समेत छुट््िटयों का प्रावधान था। आंबेडकर ने ब्रिटेन सरकार से इस विधेयक को केवल बंबई विधान परिषद क्षेत्र तक सीमित न रख कर देश भर में लागू किए जाने की अपील की। जबकि भारतीय सामाजिक परंपरा में दलितों और स्त्रियों के लिए अपने श्रम के एवज में किसी सहूलियत की उम्मीद करना लगभग अपराध माना जाता था। इसके बाद आंबेडकर ने बंबई विधान परिषद में पीजे रोहम द्वारा नवंबर, 1938 में जनसंख्या नियंत्रण विधेयक के रूप में एक ऐतिहासिक विधेयक पारित करवाया। उस विधेयक ने मनु के सदियों से चले आ रहे उस दर्शन को ध्वस्त कर दिया, जिसमें स्त्री को एक ऐसे गुलाम के रूप में जीने को कहा गया था जिसका अपनी ही देह और कोख पर अधिकार न हो। उस दर्शन के मुताबिक उसका जन्म स्त्री के रूप में इसीलिए हुआ है कि वह पुरुष की सेवा करे, उसे तृप्त करे और बच्चे पैदा करने का साधन बनी रहे। यह सिद्धांत सदियों से भारतीय स्त्रियों की भयानक स्थिति के लिए जिम्मेदार रहा और आज भी उसके खिलाफ कई रूपों में संघर्ष जारी है। भारत के इतिहास में पहली बार इस विधेयक ने स्त्रियों को यह अधिकार दिया कि अनचाहे गर्भ से मुक्ति उनका अपना निर्णय होगा और अपनी देह और कोख पर उनका अधिकार। साथ ही आंबेडकर ने तत्कालीन सरकार से ऐसी व्यवस्था करने की अपील की कि हर भारतीय स्त्री को अनचाहे गर्भ से मुक्ति उसकी मर्जी से और आसानी से मिले। आंबेडकर को वायसराय की काउंसिल में बीस जुलाई 1942 को बतौर श्रम-सदस्य शामिल किया गया। वहां अपने चार साल (1942-46) के कार्यकाल में उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण कानून बनाए और कई पुराने कानूनों में बदलाव किए। यह उन्हीं की देन है कि भारतीय श्रम कानून का स्वरूप न केवल बदला, बल्कि कहीं ज्यादा मानवीय हुआ और महिला श्रमिकों के लिए विशेष सुविधाएं लागू की गर्इं। कारखानों और खदानों में काम के घंटे घटा कर फिर से निर्धारित किए गए। स्त्री और पुरुष श्रमिकों के लिए समान वेतन के अधिकार का भी प्रावधान किया गया। छोटे बच्चों के लिए काम की जगह के आसपास ही पालनाघर बनाए गए। स्वास्थ्य और जीवन बीमा की शुरुआत की गई, सामाजिक सुरक्षा अधिनियम बनाया गया। आज देश भर में जो कर्मचारी राज्य बीमा निगम के अस्पताल चलाए जा रहे हैं, इस नीति को भी आंबेडकर ने ही मूर्त रूप दिया था। निश्चित तौर पर उनका योगदान श्रम कानून के क्षेत्र में बहुत व्यापक और सराहनीय था। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उस समय पूंजीपति वर्ग द्वारा चलाए जा रहे कारखानों में पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं थी और वह आंबेडकर के प्रयासों से ही संभव हो सकी। यों भी, पानी का अधिकार दलितों के लिए हमेशा ही संघर्ष का कारण रहा। खुद आंबेडकर इस दर्द के साथ ही जन्मे और इस समस्या का सामना किया। अप्रैल 1947 में डॉ आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल का मसविदा तैयार कर संविधान सभा में रखा, जिस पर बहस होनी थी। यह बिल मुख्य रूप से संयुक्त या अविभाजित  हिंदू परिवार में संपत्ति के अधिकार से संबंधित था। यह अगर उस वक्त पारित हो गया होता तो स्त्रियों को स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता था। यह सिर्फ स्त्री अधिकारों पर आधारित था और यही इस बिल की खासियत थी। इसमें स्त्रियों को अपनी मर्जी से विवाह और तलाक, पति से अलग रहने पर गुजारा भत्ता, गोद लेने (बच्ची को भी गोद लिए जाने) और बच्चों के संरक्षण का भी अधिकार दिया गया था। संपत्ति का विभाजन होने पर उसमें घर की स्त्रियों के रूप में मां, पत्नी और बेटी, सभी का हिस्सा निर्धारित किया गया। इस क्रांतिकारी बिल से उस वक्त तूफान आ गया था। जिस देश में स्त्री को इंसान होने के बुनियादी अधिकारों से भी वंचित किया गया था, उसे एक साथ इतने सारे हक दिए जाने वाले थे। लेकिन आखिरकार फिजूल की प्रक्रिया से जूझते रहने के बाद इस बिल को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। हालांकि इसमें सुझाए गए चार प्रावधानों को तब किसी तरह पारित किया गया। स्वतंत्र भारत में जब आंबेडकर को संविधान निर्माण का जिम्मा दिया गया तो जैसी उनसे उम्मीद थी, उन्होंने जाति, धर्म और गोत्र के सारे बंधन तोड़ कर सभी भारतीयों के लिए समता के अधिकार को प्राथमिकता दी। आज भारतीय संविधान अपने सभी नागरिकों को समान अधिकार की गारंटी देता है, चाहे वह अंबानी हों या घरों में बर्तन मांज कर परिवार का पेट भरती स्त्रियां या फिर भीख मांग कर गुजारा करते लोग। खासतौर पर स्त्रियों के साथ किसी भी आधार पर भेदभाव को कानूनी तौर पर जुर्म माना गया। चार साल बाद कानूनमंत्री के रूप में आंबेडकर ने एक बार फिर हिंदू कोड बिल को संसद में रखा, लेकिन उनकी तमाम कोशिशें बेकार हो गर्इं जब यह बिल भारी मतों से पराजित हो गया। हिंदू कोड बिल का पराजित होना आंबेडकर की निगाह में उनकी निजी हार थी। स्त्री अधिकारों के प्रति वे कितने संवेदनशील थे, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस हार के बाद उन्होंने 27 नवंबर 1951 को कानूनमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। तब से आज तक इस बिल को कई टुकड़ों में पारित किया गया, लेकिन एक तरह से देखें तो 2006 में बने घरेलू हिंसा कानून ने उनके सपने को पूरा किया। आंबेडकर महिलाओं और दलितों की शिक्षा, प्रगति और जागरूकता के लिए जिंदगी भर संघर्ष करते रहे। उनके सभी सामाजिक आंदोलनों में दलित स्त्रियां भारी संख्या में शामिल रहीं, चाहे वह पानी के सवाल पर हुआ ‘महाड सत्याग्रह’ हो या मंदिर प्रवेश के लिए ‘काला राम सत्याग्रह’ या फिर 1942 में नागपुर में आयोजित दलित महिला अधिवेशन, जिसमें पच्चीस हजार दलित महिलाओं ने शिरकत की थी। उस अधिवेशन में आठ महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए, जिनमें से एक, भारतीय स्त्रियों के लिए तलाक के अधिकार से संबंधित था। कमजोर सामाजिक तबकों की स्त्रियों की स्थिति बदलने का संघर्ष आंबेडकर के लिए एक ‘महायुद्ध’ था, जिससे वे एक योद्धा की तरह लड़े। उनका संघर्ष देश के उस तबके के लिए था जो सम्मान और न्याय के लिए सदियों से संघर्ष कर रहा था। आंबेडकर को दलितों और स्त्रियों के लिए हर उस स्थिति से लड़ना था जो उनके हालात के लिए जिम्मेदार थी। उन्होंने समय-समय पर ऐसे कई आंदोलन किए, जिन्होंने हिंदू धर्म की जड़ों पर चोट की। पच्चीस दिसंबर 1927 को उन्होंने महाड (महाराष्ट्र) में मनु-स्मृति को जलाया था, जिसे ‘हिंदू धार्मिक संविधान’ माना जाता रहा और जो दलितों और स्त्रियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार था। उस वक्त यह ऐसा ‘शॉक-ट्रीटमेंट’ साबित हुआ जिससे हिंदुत्व की जड़ें हिल गर्इं और जिसने भारतीय समाज को यह सोचने पर बाध्य कर दिया कि धर्म से भी विद्रोह किया जा सकता है; धर्म पत्थर पर लिखा फरमान नहीं है, जिसे बदला नहीं जा सकता। इन्हीं हालात में दलितों और स्त्रियों के बीच धार्मिक बेड़ियां टूटीं, अंधविश्वास के ‘उद्योग’ को भारी धक्का पहुंचा, शिक्षा और जागरूकता की शुरुआत हुई। आंबेडकर जानते थे कि वे जिस वर्ग के लिए संघर्ष कर रहे हैं वह सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक, सब तरह से कमजोर है। उस स्थिति से लड़ना और जीतना कोई आसान काम नहीं। यह चौतरफा लड़ाई थी, जिसमें एक ओर ताकतवर हिंदू धर्म-रक्षक भी थे। लंबी चली लड़ाई में आंबेडकर ने कई आंदोलन किए। मंदिर प्रवेश के मुद््दे पर उन्होंने 1927-30 के बीच दलितों के साथ नाशिक के काला राम मंदिर, पूना के पर्वती और अमरावती के अंबादेवी मंदिर में प्रवेश किया, जहां उन्हें हिंसा का भी सामना करना पड़ा। हिंदू धर्म से टक्कर आंबेडकर के लिए बेमानी था, लेकिन दलितों के बीच स्वाभिमान जगाने के लिए यह जरूरी था। 1929 में येऊला के अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि दलितों को हिंदू धर्म में अत्याचार सहते रहने की कोई आवश्यकता नहीं, वे चाहें तो किसी भी धर्म में प्रवेश कर सकते हैं। इसी के बाद बारह महारों (दलित) ने हिंदू धर्म त्याग कर इस्लाम को अपना लिया। इस घटना से हिंदू धर्माधीशों के होश उड़ गए। आंबेडकर ने अपने अंतिम दिनों तक आंदोलन को जिंदा रखा। अपनी मृत्यु से महज दो महीने पहले उन्होंने हिंदू धर्म त्याग कर चौदह अक्तूबर 1956 को नागपुर की दीक्षा भूमि में लगभग चार लाख दलितों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उसे आज तक दुनिया का सबसे बड़ा धर्म परिवर्तन माना जाता है। बौद्ध धर्म में प्रवेश की प्रक्रिया भारत में आज भी जारी है। आजादी के अड़सठ सालों बाद भारत में सवर्ण स्त्रियों की दशा में काफी बदलाव आया है। लेकिन दलित स्त्रियां आमतौर पर आज भी लगभग उसी स्थिति में हैं। आधुनिक स्त्रीवादी आंदोलन भारत में सत्तर के दशक में शुरू हुआ, लेकिन उसका नेतृत्व अब तक सवर्ण महिलाओं के ही पास है और उनके इर्दगिर्द घूमता है। कुछ दलित स्त्रियों ने इस मुद््दे पर जरूर आंदोलन किया, लेकिन उसका फायदा इस समूचे आंदोलन के नेतृत्व-वर्गों को ही मिला, उन्हें नहीं, जो वास्तव में ज्यादा शोषण का शिकार थीं। भारत में स्त्रियों के अधिकार और सम्मान के लिए सबसे ज्यादा ज्योतिबा फुले, उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले और डॉ आंबेडकर ने संघर्ष किया, लेकिन महाराष्ट्र के स्त्रीवादी आंदोलन को छोड़ शेष भारत में तो उनका नाम भी किसी स्त्रीवादी आंदोलन में नहीं लिया जाता। यह ब्राह्मणवादी मानसिकता जहां स्त्रीवादी आंदोलन को सीमित कर रही है, वहीं इससे दलित स्त्रीवादी आंदोलन को अलग विस्तार मिल रहा है। दलित स्त्रीवादी आंदोलन का इतिहास काफी पुराना है और उन्हें लड़ना आता है। लेकिन इस अलगाववादी सोच से आखिरकार किसका नुकसान होगा, यह जाहिर-सी बात है।
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स्त्री सशक्तीकरण का पैमाना

Saturday, 08 March 2014

सुषमा वर्मा

जनसत्ता 08 मार्च, 2014 : यूपीए सरकार के शासन-काल में घटती विकास दर और बढ़ी महंगाई की मार का असर यों तो पूरे देश पर दिखाई देता है, लेकिन इसकी सबसे गहरी चोट महिलाओं पर पड़ी है। सरकार ने अपनी मध्यावधि आर्थिक समीक्षा में मुद्रास्फीति को विकास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा माना है। इस समीक्षा में सरकार ने जितना बताया है उससे ज्यादा छिपाया है। पूरा सच जानने के लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की ताजा रिपोर्ट पर एक नजर डालना जरूरी है।  यह रिपोर्ट बताती है कि सन 2009-10 और 2011-12 यानी दो वर्ष के अंदर गांवों में महिला श्रमिकों की संख्या में नब्बे लाख की कमी आई। निश्चय ही इसका असर दलित और गरीब परिवारों पर सर्वाधिक पड़ा है। गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए इस वर्ग की महिलाओं के लिए मजदूरी करना जरूरी होता है, लेकिन बाजार की मेहरबानी पर टिकी अर्थव्यवस्था ने उन्हें रोजगार-बाजार से बाहर धकेल दिया है। नतीजा सामने है। महिलाओं पर अत्याचार, हिंसा और बलात्कार की घटनाओं में इजाफा हुआ है। आर्थिक तंगी से सामाजिक तनाव बढ़ा है और तनाव बढ़ने पर सबसे पहले सबसे कमजोर कड़ी टूटती है। यह कहने की जरूरत नहीं कि महिलाएं हमारे समाज की सबसे कमजोर कड़ी हैं। वैश्वीकरण और बाजार आधारित आर्थिक मॉडल अपनाने के लगभग बीस बरस पहले सन 1972-73 में श्रमशक्ति में महिलाओं का योगदान बत्तीस फीसद था। उदारीकरण की राह पकड़ने के बीस बरस बाद 2010-11 में यह संख्या घट कर अठारह प्रतिशत रह गई। हमारे नब्बे फीसद मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की संख्या तो और अधिक है। उनके लिए सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा का कोई इंजताम नहीं है। कार्यस्थल पर न तो बच्चों के रख-रखाव का प्रबंध होता है और न ही आने-जाने की व्यवस्था। संयुक्त परिवार व्यवस्था चरमरा जाने से मजदूर औरतों को अपने बच्चों की देखभाल का काम खुद करना पड़ता है और इसकी वैकल्पिक व्यवस्था न होने पर उन्हें अक्सर काम छोड़ना पड़ता है। काम छोड़ने का दुष्परिणाम भी सबसे पहले उन्हें और उनके बच्चों को भोगना पड़ता है। कुपोषण की समस्या को इस कड़वे सच के साथ जोड़ कर समझा जाना चाहिए। एनएसएसओ की रिपोर्ट के अनुसार गांवों में एक की कमाई पर निर्भर परिवारों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इसका अर्थ यही हुआ कि पारिवारिक आय में कमी आ रही है। दुर्भाग्यवश अगर किसी घर में कमाने वाले सदस्य की नौकरी छूट जाए, वह दुर्घटनाग्रस्त हो जाए या उसकी मृत्यु हो जाए तो पूरे परिवार के बिखर जाने की आशंका प्रबल हो जाती है। वर्ष 1993-94 में जहां एक से ज्यादा सदस्यों की कमाई पर निर्भर ग्रामीण परिवार छियासठ प्रतिशत थे, वहीं 2011-12 में उनकी तादाद घट कर चौवन प्रतिशत रह गई। इस अवधि में बिना किसी कमाई वाले परिवारों की संख्या में भी दो फीसद का इजाफा हुआ। संकेत चिंताजनक हैं। रोजगार के मोर्चे पर शहरों में रहने वाली महिलाओं की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है। शहरों में भी एक से ज्यादा सदस्यों की कमाई पर आश्रित परिवारों की संख्या घटी है। वर्ष 2010-11 में ऐसे परिवार छत्तीस प्रतिशत थे, जबकि 1993-94 में उनकी संख्या उनतालीस फीसद थी। और ताजा आंकड़ों से भी स्थिति में सुधार का संकेत नहीं मिलता। कुल मिला कर हालात बिगड़ रहे हैं। 2009-10 में पंद्रह वर्ष से ज्यादा आयु की गैर-कामकाजी लड़कियों और महिलाओं की संख्या पैंसठ फीसद थी। मतलब यह कि काम करने की सबसे बेहतर उम्र में भी ये बेकार बैठी थीं। लड़कियों की शिक्षा में सुधार के बावजूद उन्हें नौकरी पाने में कठिनाई आ रही है। कड़वा सच यह है कि महंगाई के दौर में साधारण और गरीब परिवारों के लिए एक कमाई पर परिवार का खर्च चलाना लगभग असंभव हो गया है। सिकुड़ते रोजगार अवसरों के कारण चाहते हुए भी महिलाएं अपने घर की माली हालत सुधारने में कोई योगदान नहीं दे पाती हैं। एनएसएसओ की रिपोर्ट से यह खुलासा भी हुआ है कि शिक्षा के प्रसार के बरक्स शिक्षित युवाओं को उनकी योग्यता के अनुरूप रोजगार नहीं मिल पाता है। आज देश की लगभग आधी आबादी तीस वर्ष से कम आयु वर्ग में है। नौजवान पीढ़ी देश का भाग्य बदलने की ताकत रखती है, लेकिन अगर युवा वर्ग को काम न मिले तो वह विध्वंस में जुट जाता है। रोजगार देने में लड़कियों और महिलाओं से भेदभाव तो बरसों से बरता जाता रहा है। छंटनी की कैंची भी सबसे पहले उन्हीं पर चलती है। अनिश्चित रोजगार के दौर में महिलाओं के यौन शोषण की आशंका बढ़ जाती है। पेट पालने या घर चलाने की मजबूरी के कारण अन्याय सह कर भी वे अक्सर चुप्पी साधे रहती हैं। रोजगार के मोर्चे की भयावह स्थिति स्पष्ट करने के लिए एक और आंकड़ा देना जरूरी है। वर्ष 2007 में 28.5 प्रतिशत श्रमशक्ति को साल में छह माह से ज्यादा समय तक कोई काम नहीं मिल पाया था, जबकि अब यह संख्या बढ़ कर पैंतीस फीसद हो गई है। मतलब यह कि देश की एक तिहाई से ज्यादा श्रमशक्ति काम न मिलने के कारण आधे साल से ज्यादा समय निठल्ली बैठी रहती है। जबरन घर बैठाए जाने वालों की कतार में महिलाओं का स्थान अव्वल है। महंगाई और बेराजगारी के कारण उपभोक्ता सामग्री बाजार भी लगातार बेरौनक होता जा रहा है। टीवी, कार, मोबाइल, मोटरसाइकिल, फ्रिज, एसी और प्रसाधन सामग्री की बिक्री घट रही है। यह सारा सामान मध्य और उच्च मध्यवर्ग का शगल है। गरीब तबकों में ऐसी चीजें अय्याशी मानी जाती हैं। बेरोजगारी की चोट से जब मध्यवर्ग भी छटपटा रहा हो तब गरीबों की दुर्दशा की कल्पना की जा सकती है। इसी वजह से घरेलू बचत में चिंताजनक गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 2009-10 में घरेलू बचत को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 25.3 फीसद आंका गया, जबकि वर्ष 2012-13 आते-आते यह गिर कर 21.9 प्रतिशत रह गई। बचत कम होने का असर विकास पर जो पड़ता है सो पड़ता ही है, आपात स्थिति में आम परिवार के लिए यह कहर साबित होता है। हारी-बीमारी, शादी-ब्याह या अन्य बड़ी जरूरत के वक्त बचत न होने पर गरीब और निम्न मध्यवर्ग को कर्ज लेना पड़ता है और कर्ज न चुकाने पर परिवार की महिलाओं और बच्चों को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं। सरकारी अध्ययनों से एक और चौंकाने वाला सच सामने आया है। महंगाई की मार महानगरों के मुकाबले छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में ज्यादा पड़ती है। दिल्ली (नौ फीसद) के मुकाबले गाजियाबाद (ग्यारह फीसद), कोलकाता (ग्यारह फीसद) के मुकाबले दुर्गापुर (बाईस फीसद), बंगलुरु (तेरह फीसद) के मुकाबले मैसूर (चौदह फीसद) और हैदराबाद (नौ फीसद) के मुकाबले विजयवाड़ा (चौदह फीसद) ज्यादा महंगे शहर हैं। छोटे कस्बों और गांवों की स्थिति तो और विकट है। वहां महानगरों के मुकाबले खाने-पीने और दैनिक उपयोग का सामान तो महंगा है ही, साथ ही मकानों का किराया भी ज्यादा है। यह तो सर्वमान्य सच है कि महानगरों की अपेक्षा छोटे कस्बों और गांवों में रोजगार के अवसर कम होते हैं। वहां महिलाओं को नौकरी मिलने की संभावना तो और भी कम होती है। इसका अर्थ यही हुआ कि छोटे नगरों या कस्बों में रहने वाले परिवारों पर दोहरी मार पड़ती है। एक तो आसानी से काम नहीं मिलता, दूसरे, ऊंची महंगाई का दंश भी झेलना पड़ता है। यह दोहराना जरूरी है कि इस खराब स्थिति का सबसे ज्यादा खमियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ता है। अर्थशास्त्र का सिद्धांत है कि जब किसी देश में आर्थिक विकास का पहिया तेजी से घूमता है तब लोग खेती छोड़ कर उद्योगों की ओर पलायन करते हैं, लेकिन दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना देख रहे हमारे देश में आज भी लगभग आधी आबादी खेती पर निर्भर है। लागत बढ़ने और जोत का आकार लगातार कम हो जाने से अब खेती घाटे का धंधा बनती जा रही है। इसी कारण लाखों किसान खेती छोड़ शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। देश में खेतिहर महिला श्रमिकों की संख्या करोड़ों में है। इस कारण वे भी इस पलायन का बड़ा हिस्सा हैं। खेत में काम करने वाली अधिकतर श्रमशक्ति अशिक्षित और अकुशल होती है, इसलिए उसे शहरों में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में ही काम मिलने की गुंजाइश रहती है। दुर्भाग्यवश मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में रोजगार बढ़ने के बजाय कम हुए हैं। गांवों में बेकारी का दंश झेल रहे मजदूरों और किसानों को शहर में आकर भी काम नहीं मिल पाता। जब से सरकार ने रोजगार गारंटी योजना लागू की है, गांवों से श्रमशक्ति का पलायन घट गया है। लाखों किसान-मजदूर शहरों से वापस गांव लौटे हैं। अर्थशास्त्र की कसौटी पर कसें तो गंगा उलटी बह रही है। शहरों से गांव लौटने वाली आबादी में बड़ी तादाद महिलाओं की है। उन्हें लगता है कि शहर में बेकार बैठे रहने से अच्छा तो गांव में छह महीने मनरेगा में मजदूरी करना है। इन सारी कहानियों से यही सबक मिलता है कि आर्थिक विकास के मौजूदा मॉडल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ने के बजाय घट रही है। सरकार का महिला सशक्तीकरण का नारा खोखला है। आम चुनाव सिर पर हैं, लेकिन किसी बड़े राजनीतिक दल ने देश की आधी आबादी के उद्धार का कोई ठोस वचन नहीं दिया है। कन्या भू्रण हत्या, महिला कुपोषण, बच्चियों की शिक्षा और महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसक घटनाओं का मूल कारण उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति है। जब तक औरतें अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जातीं, तब तक उनके प्रति दकियानूसी सामाजिक दृष्टिकोण बदलना भी असंभव है। आर्थिक अत्मनिर्भरता से ही समाज में बराबरी का दर्जा पाया जा सकता है। बेरोजगार और घर की चारदीवारी में कैद औरत दया की पात्र हो सकती है, सम्मान की नहीं। महिलाओं की बढ़ती बेराजगारी कहीं उनके सम्मान और सुरक्षा को जान-बूझ कर चोट पहुंचाने की साजिश तो नहीं है।


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