Monday 27 October 2014

बुढ़ापा




उपेक्षा और असुरक्षा झेलता बुढ़ापा

मुद्दा डॉ. मोनिका शर्मा

बुजुर्गों के प्रति बढ़ती असंवेदनशीलता आज के दौर का कड़वा सच है। महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक जीवन की ढलती सांझ में अपनों का साथ और सहयोग चाहने वाले वरिष्ठ नागरिकों को अकेलेपन और अपमान का दंश मिल रहा है। हाल ही में गैर सरकारी संगठन हैल्प एज इंडिया द्वारा 8 राज्यों के 12 शहरों में करवाए गये सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि बीते साल के मुकाबले भारत में इस साल 50 फीसद बुजुर्ग अत्याचार का शिकार हुए। पिछले साल यह संख्या 23 प्रतिशत थी। भारत की पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था की सुदृढ़ता का मान पूरी दुनिया में किया जाता है। सहअस्तित्व और आपसी सम्मान की सोच के साथ पीढ़ियों का साथ रहना हमारे यहां आम बात रही है। सर्वे के परिणामों में जो कटु सत्य सामने आया है, वह यह कि घर के बड़ों के साथ अत्याचार करने और उन्हें उपेक्षित महसूस करवाने वाले उनके अपने ही है। जिनमें परिवार के लोग और सगे नातेिरश्तेदार शामिल हैं । यह दुखद ही है कि बेटे और दामाद इस कटु व्यवहार के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। इतना ही नहीं सर्वे के मुताबिक माता-पिता के लिए संवेदनशील कही जाने वाली बेटियां भी घर के बुजुर्गों के साथ बुरा बर्ताव करने में पीछे नहीं हैं। आंकड़ों की मानें तो 61 प्रतिशत दामाद और 59 प्रतिशत बेटे बुजुर्गों पर जुल्म ढाते हैं। सर्वे में यह भी सामने आया है कि उम्रदराज लागों के साथ होने वाले इस र्दुव्‍यवहार में भी महिला और पुरु षों के आंकड़े अलग- अलग हैं। जहां 48 प्रतिशत बुजुर्ग पुरु ष अपनों के अत्याचार का शिकार होते हैं, वहीं बुगुर्ग महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा 52 फीसदी है। देश और समाज को गढ़ने में अपना पूरा जीवन लगा देने वाले बुजुर्गों की समस्याओं के प्रति परिवार, समाज और सरकार की उदासीनता आज के दौर का कड़वा सच है। उम्रदराज लोगों का एक बड़ा प्रतिशत ऐसा है जो स्वयं को समाज से कटा हुआ और मानिसक रूप से दमित महसूस करता है। इस सर्वे में यह भी सामने आया है कि बुजुर्गों पर अत्याचार के मामले में 41 फीसद गाली गलौच और 33 फीसद अपमानित करने की घटनाएं शामिल हैं। अपनों से मिलने वाला ऐसा रूखा और असंवेदनशील व्यवहार वृद्धजनों को कई मानसिक बीमारियों का भी शिकार बना रहा है जिसके चलते उनका शारीरिक ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य भी कमजोर होता जा रहा है। जिस देश में बुजुगरे का आश्रय पाकर परिवार का हर सदस्य सुरक्षित महसूस किया करता था, उसी समाज में वरिष्ठ नागरिक आज हर तरह से स्वयं को असुरक्षित पाते हैं, अपमान झेलते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। बीते कुछ बरसों में बुजुर्गों का अपनों की उपेक्षा का शिकार बनना हमारी बदलती सामाजिक और पारिवारिक परिस्थितियों को रेखांकित करता है। वृद्धजनों के प्रति उनके अपने ही परिवारों में उपेक्षा का भाव तेजी से पनपा है जो दुखद और चिंतनीय है क्योंकि बड़ों से परिवार की युवा पीढ़ी का जुड़ाव और उनके प्रति जिम्मेदारी का भाव ही हमारे यहां वरिष्ठोंजनों की सुरक्षा और संबल हुआ करते थे। यही वजह है कि विकसित देशों के समान भारत में बुजुर्गों की सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिए सरकार की योजनाएं न के बराबर हैं। लेकिन वृद्धजनों के सामाजिक-आर्थिक और स्वास्थ्य से जुड़े हालात अब और चिंतनीय होते जा रहे हैं। कभी परिवार के लिए अनुभव की खान और स्नेह का साया बनने वाले बुजुर्ग अब हर तरह से उपेक्षित तो हैं ही, वे अपने बच्चों का अमर्यादित व्यवहार झेलने को भी मजबूर हैं। एक समय था जब सामाजिक दबाव के चलते ही सही, बच्चे बुजुगरे की देखभाल किया करते थे। उनकी जिम्मेदारी पूरे मान-सम्मान के साथ उठाया करते थे। ऐसे में आज के आपाधापी भरे दौर में जब समाज और सामाजिक परिवेश का तानाबाना ही बदल गया है, बुज़ुर्गों के साथ होने वाला र्दुव्‍यवहार हम सबके सामने है। इस सर्वे में यह भी सामने आया है कि बुजुर्गों पर अत्याचार के मामले में 41 फीसद गाली गलौच और 33 फीसद अपमानित करने की घटनाएं शामिल हैं। अपनों से मिलने वाला ऐसा रूखा और असंवेदनशील व्यवहार वृद्धजनों को कई मानसिक बीमारियों का भी शिकार बना रहा है । जिसके चलते उनका शारीरिक ही नहीं मानिसक स्वास्थ्य भी कमजोर होता जा रहा है। यही वजह है कि वरिष्ठ नागरिक आज हर तरह से स्वयं को असुरक्षित पाते हैं, अपमान झेलते हैं, जो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। बुजुर्गों की समस्याओं के प्रति परिवार, समाज और सरकार की उदासीनता आज के दौर का कड़वा सच है। उम्रदराज लोगों का एक बड़ा प्रतिशत ऐसा है जो स्वयं को समाज से कटा हुआ और मानसिक रूप से दमित महसूस करता है। समाज और सरकार की असंवेदनशीलता बुजुर्गों के लिए बहुत पीड़ादायी है। 2007 में बने कानून मेंटेनेंस एंड वेलफेयर ऑफ पेरेंट्स एंड डिपेंडेंट्स में सरकार ने यह प्रवाधान किया है कि बूढ़े माता-पिता की देखभाल की जिम्मेदारी उन बच्चों और रिश्तदारों की होगी जो उनकी जायदाद के वारिस होंगें। जबकि आए दिन ऐसी खबरें सुर्खियां बनती हैं, जहां बुजुर्गों से उनकी जमीन जायदाद ले लेने के बावजूद उनके बच्चे और नाते रिश्तेदार उनसे बदसलूकी करते हैं। इतना ही नहीं, पिछले कुछ सालों में उम्रदराज लोगों को मारने-पीटने और घर से निकाल देने के मामले भी तेजी से बढ़े है। आंकड़े बताते है कि भारत ही नहीं, नियंतण्र स्तर पर भी वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बढ़ रही है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनियाभर में जिस आयु वर्ग की जनसंख्या सर्वाधिक तेज़ी से बढ़ रही है वह है, 80 या उससे ऊपर का आयुवर्ग। एक अनुमान के मुताबिक 2050 तक एशिया में रहने वाले हर चार में से एक नागरिक 60 साल का होगा। सामाजिक विघटन के इस दौर में उम्रदराज लोगों को सम्मान और सुरक्षित जीवन जीने का अधिकार मिले, इसके लिए हर स्तर पर प्रयास किये जाने की आवश्यकता है। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र ने इस विषय पर कई बार कहा है कि समय के साथ दुनियाभर में बुजुर्गों का अनुपात बढ़ता जायेगा। इसीलिए सरकारों को जीवनयापन, काम और परस्पर देखभाल के संबंध में नए विकल्पों और उपायों पर गौर करना होगा। भारत में भी बुजुर्गों के लिए औपचारिक पेंशन योजनाओं और स्वास्थ्य सेवाओं का योजनागत रूप से विस्तार किया जाना जरूरी है।

Sunday 7 September 2014

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस




दायित्वबोध की चेतना का संदेश देता

 महिला दिवस

8, MAR, 2014, SATURDAY 

बेला गर्ग

विश्व महिला दिवस महिलाओं के अस्तित्व एवं अस्मिता से जुड़ा एक ऐसा दिवस है जो दायित्वबोध की चेतना का संदेश देता है। इसमें जहां नारी की अनगिनत जिम्मेदारियों के सूत्र गुम्फित हैं, वही नारी पर घेरा डालकर बैठे खतरों एवं उसे दोयम दर्जा समझे जाने की मानसिकता को झकझोरने के प्रयास भी सम्मिलित है । यह दिवस उन चैराहों पर पहरा देता है जहां से जीवन आदर्शों के भटकाव की संभावनाएं हैं, यह उन आकांक्षाओं को थामता है जिनकी गति तो बहुत तेज होती है पर जो बिना उद्देश्य बेतहाशा दौड़ती है। यह दिवस नारी को शक्तिशाली और संस्कारी बनाने का अनूठा माध्यम है। वैयक्तिक स्वार्थों को एक ओर रखकर औरों को सुख बांटने और दु:ख बटोरने की मनोवृत्ति का संदेश है। इसलिए इस दिवस का मूल्य केवल नारी तक सीमित न होकर सम्पूर्ण मानवता से जुड़ा है। एक कहावत है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्टर मान्यता वाले औरत को मर्द की खेती समझते हैं। कानून का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई हारती रही है। इसीलिये आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए। पूरे पृष्ठ, जितने पुरुषों को प्राप्त हैं। पर विडम्बना है कि उसके हिस्से के पृष्ठों को धार्मिकता के नाम पर 'धर्मग्रंथ' एवं सामाजिकता के नाम पर 'खाप पंचायते' घेरे बैठे हैं। पुरुष-समाज को उन आदतों, वृत्तियों, महत्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर वे उस ढ़लान में उतर गये जहां रफ्तार तेज है और विवेक अनियंत्रण हैं जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध और अत्याचार। पुरुष-समाज के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने को विवश होना पड़ता है। 'मातृदेवो भव:' यह सूक्त भारतीय संस्कृति का परिचय-पत्र है।  ऋ षि-महर्षियों की तप: पूत साधना से अभिसिंचित इस धरती के जर्रे-जर्रे में गुरु, अतिथि आदि की तरह नारी भी देवरूप में प्रतिष्ठित रही है। रामायण उद्गार के आदि कवि महर्षि वाल्मीकि की यह पंक्ति- 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' जन-जन के मुख से उच्चारित है। प्रारंभ से ही यहाँ 'नारीशक्ति' की पूजा होती आई है फिर क्यों नारी अत्याचार बढ़ रहे हैं? वैदिक परंपरा दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी के रूप में, बौध्द अनुयायी चिरंतन शक्ति प्रज्ञा के रूप में और जैन धर्म में श्रुतदेवी और शासनदेवी के रूप में नारी की आराधना होती है। लोक मान्यता के अनुसार मातृ वंदना से व्यक्ति को आयु, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुण्य, बल, लक्ष्मी पशुधन, सुख, धनधान्य आदि प्राप्त होता है, फिर क्यों नारी की अवमानना होती है? नारी का दुनिया में सर्वाधिक गौरवपूर्ण सम्मानजनक स्थान है। नारी धरती की धुरा है। स्नेह का स्रोत है। मांगल्य का महामंदिर है। परिवार की पॣढ़िका है। पवित्रता का पैगाम है। उसके स्नेहिल साए में जिस सुरक्षा, शाीतलता और शांति की अनुभूति होती है वह हिमालय की हिमशिलाओं पर भी नहीं होती। सुप्रसिध्द कवयित्रि महादेवी वर्मा ने ठीक कहा था-'नारी सत्यं, शिवं और सुंदर का प्रतीक है। उसमें नारी का रूप ही सत्य, वात्सल्य ही शिव और ममता ही सुंदर है। इन विलक्षणताओं और आदर्श गुणों को धारण करने वाली नारी फिर क्यों बार-बार छली जाती है, लूटी जाती है?  पिछले कुछ दिनों में इंडिया ने कुछ और ऐसे मौके दिए जब अहसास हुआ कि भू्रण में किसी तरह अस्तित्व बच भी जाए तो दुनिया के पास उसके साथ और भी बहुत कुछ है बुरा करने के लिए। बहशी एवं दरिन्दे लोग ही नारी को नहीं नोचते, समाज के तथाकथित ठेकेदार कहे जाने वाले लोग और पंचायतें भी नारी की स्वतंत्रता एवं अस्मिता को कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है, स्वतंत्र भारत में यह कैसा समाज बन रहा है, जिसमें महिलाओं की आजादी छीनने की कोशिशें और उससे जुड़ी हिंसक एवं त्रासदीपूर्ण घटनाओं ने बार-बार हम सबको शर्मसार किया है। विश्व नारी दिवस का अवसर नारी के साथ नाइंसाफी की स्थितियों पर आत्म-मंथन करने का है, उस अहं के शोधन करने का है जिसमें पुरुष-समाज श्रेष्ठताओं को गुमनामी में धकेलकर अपना अस्तित्व स्थापित करना चाहता है। नारी अनेक रूपों जीवित है। वह माँ, पत्नी, बहन, भाभी, सास, ननंद, शिक्षिका आदि अनेक दायरों से जुड़कर सम्बधों के बीच अपनी विशेष पहचान बनाती है। उसका हर दायित्व, कर्तव्य, निष्ठा और आत्म धर्म से जुड़ा होता है। इसीलिए उसकी सोच, समझ, विचार, व्यवहार और कर्म सभी पर उसके चरित्रगत विशेषताओं की रोशनी पड़ती रहती है। वह सबके लिए आदर्श बन जाती है। बदलते परिवेश में आधुनिक महिलाओं के लिए यह आवश्यक है कि मैथिलीशरण गुप्त के इस वाक्य-ऑंचल में है दूध को सदा याद रखें। उसकी लाज को बचाएँ रखें और भू्रणहत्या जैसा घिनौना कृत्य कर मातृत्व पर कलंक न लगाएँ। बल्कि एक ऐसा सेतु बने जो टूटते हुए को जोड़ सके, रुकते हुए को मोड़ सके और गिरते हुए को उठा सके। नन्हें उगते अंकुरों और पौधों में आदर्श जीवनशैली का अभिसिंचन दें ताकि वे शतशाखी वृक्ष बनकर अपनी उपयोगिता साबित कर सकें। जननी एक ऐसे घर का निर्माण करे जिसमें प्यार की छत हो, विश्वास की दीवारें हों, सहयोग के दरवाजे हों, अनुशासन की खिड़कियाँ हों और समता की फुलवारी हो। तथा उसका पवित्र ऑंचल सबके लिए स्नेह, सुरक्षा, सुविधा, स्वतंत्रता, सुख और शांति का आश्रय स्थल बने, ताकि इस सृष्टि में बलात्कार, गैंगरेप, नारी उत्पीड़न जैसे शब्दों का अस्तित्व ही समाज हो जाए।
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आखिर क्यों हैं महिलाएं 

अपने अधिकारों से महरूम?

8, MAR, 2014, SATURDAY

गौहर आसिफ
हर साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को मनाया जाता है। इस दिन को मनाने का मुख्य उद्देश्य महिलाओं को हर क्षेत्र में समान अधिकार दिलाने के साथ महिलाओं की सुरक्षा को भी सुनिश्चित करना है। इसमें कोई शक नहीं महिलाएं हर क्षेत्र में मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं। लेकिन 21 वीं सदी के इस दौर में जहां एक तरफ  महिला सशक्तिकरण की बातें हो रहीं है, वहीं लाखों  महिलाएं आज भी अपने मूलभूत  अधिकारों से वंचित हैं। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर पूरे विश्व की महिलाएं जात-पात, रंग-भेद, वेशभूषा, भाषा से परे एकजुट होकर इस दिन को मनाती हैं। महिला दिवस महिलाओं को अपनी दबी-कुचली आवाज़ को अपने अधिकारों के प्रति बुलंद करने की प्रेरणा देता है। हमारे देश में महिलाओं के साथ भेदभाव की कहानी पारिवारिक स्तर से शुरू हो जाती है। कई बार तो लड़की को दुनिया में आने से पहले ही बोझ समझकर मां के गर्भ में खत्म कर दिया जाता है। अगर लड़की परिवार में जन्म ले भी लेती है तो लड़के के मुकाबले उसको हर स्तर पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। और तो और लड़कों के मुकाबले लड़कियों को शिक्षा देने में भी कमी की जाती है। इसके पीछे पुरूष समाज की सोच यह होती है कि लड़की पढ़ लिखकर क्या करेंगी, इसको तो शादी होकर अपने घर जाना है? घर का सारा काम करने के बावजूद भी आज भी यादातर परिवारों में महिलाएं पुरूषों के बाद ही खाना खाती है। लड़कियों के अधिकारों का कत्लेआम तो सबसे पहले पारिवारिक स्तर पर ही होता है। महिलाओं के साथ भेदभाव की यह दास्तां यहीं नहीं थमती है। आज़ादी के 66 वर्षो के बाद भी हम महिलाओं के खिलाफ  होने वाली घरेलू हिंसा पर पूरी तरह लगाम नहीं लगा पाए हैं। बाल विवाह और दहेज प्रथा की बेड़ियां आज भी हमारे समाज को जकड़े हुए हैं। बलात्कार के मामलों में लगातार इज़ाफ ा होता जा रहा है। शायद ही कोई ऐसा दिन जाता होगा कि महिलाओं के साथ उत्पीड़न और अत्याचार की दास्तां अखबारों की खबर न बनती हो। महिलाओं के साथ सामाजिक दर्ुव्यवहार के बहुत से मामले हैं जिन्हें अनदेखा करना आम सी बात हो गयी है। कुल मिलाकर हर क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति खराब है। आज महिलाओं को आरक्षण की ज़रूरत नहीं है आवश्यकता है उन्हें उचित सुविधाओं की उनकी प्रतिभाओं और महत्वाकांक्षाओं के सम्मान की और सबसे बढ़कर तो ये की समाज में नारी ही नारी को सम्मान देने लगे तो समस्या काफ ी हद तक कम हो सकती है। महिला दिवस के अवसर मैं देश की सभी महिलाओं से यही विनती करना चाहूंगा कि अपनी इस सोच को बदले कि वह पुरूष प्रधान समाज का हिस्सा हैं। महिलाएं जब तक अपनी इस सोच को नहीं बदलेंगी तब तक आगे नहीं बढ़ सकतीं।   सवाल यह है कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का मतलब क्या है? जब महिलाओं की अवस्था में कोई सुधार नहीं हो रहा है तो अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस  का भारत में क्या महत्व है? जब तक कि पुरूष वर्ग महिलाओं को सम्मान से नहीं देख सकता तब तक महिलाओं की स्थिति नहीं बदलेगी। पुरूष समाज को महिलाओं के प्रति अपने नज़रिये में बदलाव लाना होगा। नारी जाति के प्रति जब तक पुरूषों का नज़रियां नहीं बदलेगा तब तक महिलाएं अपने हक से वंचित होती रहेंगी। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस जहां एक ओर महिलाओं को अपने हक के प्रति आवाज़ बुलंद करने की प्रेरणा देता है, वहीं दूसरी ओर पुरूष समाज को नारी जाति के प्रति अपना नज़रियां बदलने की भी हिदायत देता है। लाख कोशिशों के बाद भी महिलाएं अपने बुनियादी हक से महरूम है।
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नारी-अस्मिता : 
समूची दुनिया में हाशिए पर

8, MAR, 2013, FRIDAY

डॉ ग़ीता गुप्त

आज स्त्रीवाद या स्त्री विमर्श एक फैशन बन गया है। हालांकि स्त्री के मुद्दों पर चिंता जतलाने के लिए आन्दोलन भी हो रहे हैं। परन्तु यह कोई नई बात नहीं है।  नारी अस्मिता और उससे जुड़े तमाम सवालों का हल दो सौ से भी अधिक वर्षों से ढूंढ़ा जा रहा है तथापि समस्याएं यथावत् हैं। अठारहवी शताब्दी के मय में ही दुनिया की तमाम स्त्रियों को बराबरी का हक़ दिलवाने की ज़रूरत महसूस की गई और पहली बार राइट्स ऑफ विमेन के मायम से स्त्री-अधिकारों के लिए आवाज़ मुख़र हुई। इंग्लैण्ड की मैरी वोलस्टोन ाफ्ट पहली महिलावादी थीं जिन्होंने महिला शिक्षा और अधिकारों को लेकर महिला आंदोलन की शुरूआत की। अपनी पुस्तक अ विंडीकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ विमेन% में उन्होंने स्त्री के पारिवारिक एवं नागरिक जीवन में अधिकारों व कर्तव्यों को परिभाषित किया है। उन्होंने शोषण से स्त्री की मुक्ति हेतु पुरुषों में बदलाव की आवश्यकता पर बल दिया है। स्वीडन की फ्रेडरिका बेमर ने भी 1849 में स्त्री जीवन की विडंबनाओं को स्वयं अनुभव किया। उन्होंने अमेरिका जाकर वहां की स्त्रियों की स्थिति का अययन किया। फिर स्वीडन लौटकर अपना उपन्यास %%हेर्था%%लिखा। जिसमेंस्त्री को परम्परागत भूमिका से मुक्त रूप में चित्रित किया। यही उपन्यास स्वीडन की संसद में स्त्रियों के हित में बनाये जाने वाले क़ानूनों का आधार बना। 1791में फ्रांस में ओलिम्पी दे गाज द्वारा महिलाओें के नागरिकअधिकारों पर घोषणापत्र प्रस्तुत किया गया। इसमें स्त्रियों के लिए पुरुषों के समान अधिकारों की घोषणा की गई। भारत में सरोजिनी नायडू पहली ऐसी महिला थीं जिन्होंने एनी बेसेण्ट और अन्य लोगों के साथ मिलकर भारतीय महिला संघ की स्थापना की। उन्नीसवीं शताब्दी की महिला आन्दोलनकारियों में फ्रांस की सिमोन द बोउवा का नाम सर्वोपरि है। उनकी पुस्तक %द सेकेण्ड सेक्स% स्त्री विमर्श की चर्चित कृति है। सिमोन मानती थी%% कि स्त्री का जन्म भी पुरुष की तरह ही होता है मगर परिवार व समाज द्वारा उसमें स्त्रियोचित गुण भर दिए जाते हैं। प्रसिध्द दार्शनिक यां पाल सार्त्र के साथ बिना विवाह किए संगिनी की तरह रहने वाली सिमोन ने स्त्री अधिकारों और मातृत्व की नयी परिभाषा गढ़ी। 1970 में फ्रांस के नारी मुक्ति आंदोलन में भाग लेने वाली सिमोन स्त्री के लिए पुरुष के समान स्वतंत्रता की पक्षार थीं। प्रसंगवश यहां अमेरिका की रॉबिन मोर्गन, बैटी फ्रीदां, एंड्रिया ड्वार्किन, सुजेन फलूदी और ग्लोरिया स्टीनेम जैसी प्रसिध्द महिलावादियों का नामोल्लेख उचित है। रॉबिन ने महिला-आन्दोलन पर %सिस्टरहुड इज़ पावरफुलजैसी चर्चित पुस्तक लिखी। 1960के दशक में वे लेस्बियन के रूप में जानी गईं और महिला मुक्ति आन्दोलन में भी सयि रहीं। बैटी फ्रीदां अमेरिका में राष्ट्रीय महिला संघ की संस्थापक और अध्यक्ष रहीं। उन्होंने अपपुस्तक %द फेमिनिन मिस्टीक% में गृहिणी शिक्षा पर प्रश्न उठाया। वे गर्भपात-क़ानून की विरोधी और समान अधिकारों की समर्थक थीं। इस विवेचन का आशय यही है कि समान अधिकारों के लिए महिलाओं का संघर्ष नया नहीं है। यह सर्वकालिक और सार्वदेशिक है। महिलाएं चाहे जिस भी नस्ल, वर्ण, जाति, धर्म, संस्कृति या देश की हो, उनके संघर्ष लगभग एक समान हैं। आश्चर्यजनक तो यह है कि स्त्रीवादियों के आन्दोलन की जो लहर पहले पहल अठारहवी शताब्दी के मय में उठी थी, अब तक अपनी मंजिल नहीं पा सकी है। यद्यपि स्त्री की एक नयी छवि अवश्य उभर रही है। सदियों से बांनों में जकड़ी स्त्री अब स्वावलंबी और सबला बनने हेतु सचेष्ट है। अतएव विश्व के अधिकतर देशों में सकल घरेलू उत्पाद में उनकी सयि भागीदारी बढ़ रही है। अमेरिका, कनाड़ा, चीन, ब्राजील, मेक्सिको, युगांडा, भारत और बांग्लादेश जैसे तमाम विकसित व विकासशील देशों में जहां रोजगार सृजन का कार्य व्यापक पैमाने पर हो रहा है, वहां की समृध्दि का आधार स्तंभ महिलाएं हैं। इस महिला श्रम की अनदेखी नहीं की जा सकती। प्रथम विश्व युध्द के उपरान्त विश्व की आर्थिक एवं सामाजिक उन्नति में महिलाओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। लेकिन सभी क्षेत्रों में अपनी क्षमता साबित कर देने के बावजूद समूची दुनिया में आज भी स्त्री हाशिए पर है। मधय एशिया के सबसे बड़े देश ईरान में 36 विश्वविद्यालयों ने 80 अलग-अलग पाठयमों में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है। ऐसे पाठयमों में इंजीनियरिंग,कम्प्यूटर साइन्स,नाभिकीय भौतिकी,अंग्रेजसाहित्य और पुरातत्व जैसे विषय भी शामिल हैं। आर्यों की ज़मीन माने जाने वाले ईरान में स्त्रियों की ज़ुबान पर ताले हैं। उन्हें सिर्फ़ चेहरा खुला रखने की आज़ादी है। वहां कोई महिला संगठन नहीं है, जो महिला अधिकारों की बात करें। कोई महिला राजनेता नहीं है। तीन वर्ष पूर्व विरोधी प्रदर्शन के दौरान एक युवती नेहा आग़ा सुल्तान मारी गई थी तदुपरान्त किसी महिला ने आगे आने की हिम्मत नहीं दिखाई। ईरान की नोबेल शांति पुरस्कार विजेता शीरीन इबादी ईरान से बाहर रहकर स्त्रियों की आज़ादी की लड़ाई लड़ रही हैं। वैश्विक स्तर पर स्त्री की स्थितियों में अधिक अन्तर नहीं है। हम चाहे सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक या पारिवारिक परिदृश्य की बात करें, हर कहीं स्त्री का शोषण बदस्तूर जारी है। धार्मिक परिदृश्य में झांके तो इस्लामिक कट्टरपंथियों को महिलाओं के प्रति संकीर्णता के लिए अक्सर ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। जैसे, नवनिर्मित व आधुनिक राष्ट्र इज़रायल भी अपनी स्त्रियों को %पवित्र दीवाल% को पूजने नहीं देता। जबकि 60 वर्ष पूर्व यह प्रतिबां नहीं था। धार्मिक नेता और समाज के ठेकेदार युवतियों के रहन-सहन, परिाधन, संचार साधनों के उपयोग और जीवनसाथी के चयन जैसे सर्वथा निजी मामलों में भी अपनी राय थोपकर उनकी स्वतंत्रता का हनन करते हैं। ग़ौरतलब है कि फ्रांस की राजधानी पेरिस में महिलाओं को पैण्ट पहनने का अधिकार अब जाकर मिल पाया है। फ्रांस सरकार ने दो सौ वर्ष पुरानी पाबंदी हटाकर हाल ही में महिलाओं को परिाधन सम्बंधी यह स्वतंत्रता दी है। यहां सऊदी अरब का जि भी ज़रूरी है। जहां सऊदी औद्योगिक सम्पत्ति प्राधिकरण (मोडोन) को आधुनिक दुनिया के हिसाब से केवल महिलाओं के लिए एक शहर बसाने का काम सौंपा गया है। यह कार्य अगले वर्ष आरंभ होगा। नये शहर में कड़े इस्लामी क़ानून के दायरे में ही महिलाओं को काम करने की अनुमति होगी। हालांकि सऊदी शरिया कानून महिलाओं के काम पर रोक नहीं लगाता किन्तु आंकड़ों से स्पष्ट है कि कार्य स्थल पर महिलाओं की भागीदारी मात्र 15 प्रतिशत है। माना जा रहा है कि अलग शहर की योजना होने से देश के विकास में महिलाएं अधिक सयि भूमिका निभा सकेंगी। युवतियों को इसमें काफ़ी रोजगार मिलेगा। मोडोन के उप महानिदेशक सालेहअल रशीद के अनुसार, महिलाओं के लिए दूसरे औद्योगिक शहर पर भी काम अब हो रहा है और देश के कई भागों में सिर्फ़ महिलाओं के लिए उद्योग स्थापना की भी योजना है। महिलाओं के लिए पृथक उद्योग धां ध ों की बात तो समझ में आती है लेकिन अलग शहर बसाने की स्थिति में परिवार और विवाह जैसी अवध ारणाओं का क्या होगा ? यह जिज्ञासा स्वाभाविक है। वस्तुतऱ् महिलाओं के संदर्भ में रोज़गार, शिक्षा और क़ानून को लेकर समानता की मांग बेमानी नहीं है। क्योंकि वे हर जगह भेदभाव से पीड़ित हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यम (यूएनड़ीपी) क़े दस्तावेज़ मानविकास रपट से ज्ञात होता है कि समूचे विश्व में महिलाएं शोषण का शिकार हैं। पुरुष प्रधान समाज में उसकी उन्नति के मार्ग में हर क़दम पर अवरोध दिखाई देते हैं। जनसंख्या व विकास पर जब काहिरा में विश्व सम्मेलन हुआ तो धार्मिक पुरोहितों ने गर्भपात और अनचाहे गर्भ को रोकने के लिए सम्मेलन के प्रस्ताव का विरोध किया। फलतऱ् एक स्त्री-हितैषी निर्णय खटाई में पड़ गया। यह भी कटु सत्य है कि संसार के दो तिहाई कठिन परिश्रम वाले कार्य महिलाएं ही करती हैं परन्तु इसके बदले उन्हें बहुत कम पारिश्रमिक मिलता है। उन्हें पुरुषों की आय के दसवें भाग के बराबर मिल पाता है और सम्पत्ति तो बमुश्किल सौ में से एक महिला के नाम पर होती है। दरअसल स्त्री अपने परिवार के लिए अथक परिश्रम करती है पर उसके श्रम को कोई सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं हैं। भारत में तो कर्तव्य और प्रेम की ओट में उसके श्रम की अनदेखी कर दी जाती है। आज नारी का अस्तित्व खतरे में है। यदि हम भारत की बात करें, तो यहां परिवार की व्यवस्था के लिए एक सौभाग्यवती ब्याहता की मांग होती है। मगर कम्पनियों और बाज़ारवादी व्यवस्था को स्वयं निर्णय लेने में सक्षम, स्वावलंबी और सौन्दर्यचेता स्त्री चाहिए। इन दोनों बातों को यान में रखते हुए मीडिया स्त्री की जो छवि रच रहा है वह नकारात्मक अधिक है। नारी मुक्ति आन्दोलन स्त्री की स्वतंत्रता पर बल देता है, जबकि असल मुद्दा यह है कि उसे इंसान के रूप में मान्यता दी जाए। तब उसे पुरुष के समान अधिकारों की मांग अलग से करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। देश और समाज के प्रति उसकी भूमिका और उत्तरदायित्व इंसान के रूप में ही सुनिश्चत हो जाएंगे। मगर दु:ख की बात यह है कि भारतीय महिलाओं की स्थिति सरकार के समस्त प्रयासों के बावजूद दयनीय होती जा रही है। आज सबसे बड़ी समस्या स्त्री की स्वतंत्रता की नहीं, सुरक्षा की है। दुधमुंही बच्ची से लेकर वृध्दा तक के साथ बलात्कार हो रहे हैं। समूचे विश्व में स्त्री यौन उत्पीड़न और हिंसा से जूझ रही है। उसकी महत्वाकांक्षाओं के लिए समाज में कोई स्थान नहीं है। उसे इसके लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। आख्धिर कब तक उसकी योग्यता और क्षमता की अवहेलना होती रहेगी? कब तक उसका शोषण जारी रहेगा? औपचारिक तौर पर किसी एक दिन %महिला दिवस% मनाने से उसकी समस्याओं का हल नहीं निकलेगा। अब विश्व महिला दिवस एक विशेष दिन के रूप में मनाने की बजाय ऐसी पहल की जानी चाहिए जिसमें हर दिन महिला अपने को सुरक्षित और सम्मानित महसूस कर सके। अपने देश की उन्नति में एक इन्सान और मज़बूत नागरिक के रूप में योगदान कर सके। अपने स्त्री होने पर गर्व कर सके।
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कुदरत की सबसे अनमोल रचना को सलाम

8, MAR, 2014, SATURDAY 

 विनिता झा

नारी को कुरदत की सबसे अनमोल आकृतियों में से एक कहा गया है। कहते है भगवान ने औरत बनाई और औरत पर इस सृष्टि को बनाने और बनाए रखने का भार भी सोप दिया। तक से लेकर अब तक नारी ने इस बागडोर को बड़े ही अच्छे ढंग से संभालना भी है और आगे भी संभालती रहेगी। नारी... के कई रूप हैं। नारी जननी है।.. मार्गदर्शिका है..  बेटी है.. बहन है.. प्रेमिका है, पत्नी है और सबसे बढ़कर एक बहुत अच्छी दोस्त भी है। हमारे देश में आजकल हर रोज ही कोई ना कोई दिवस मनाया जाता है। वैसे तो भारत को त्यौहारों का ही देश कहा जाता है पर वह सप्ताह या माह के अंतराल बाद ही आते हैं। कैलेंडर में देखें तो नये साल से शुरू होकर वैलेंटाइन डे, होली से क्रीसमस तक हर रोज कोई न कोई खास दिन होता है। आज महिला दिवस है। पूरा विश्व इस दिन महिलाओं को सम्मान देता है, लेकिन भारत में तो नारी की पूजा ही होती है। लेकिन क्या सिर्फ  आज के ही दिन महिला सम्मान की बातें करने से महिला सम्मान की सुरक्षा हो जाती है या ये सिर्फ एक खाना पूर्ति ही है? जरूरत इस बात की है कि महिलाएं खुद अपने अस्तित्व को पहचाने। इस देश में नारी को श्रध्दा, देवी, अबला जैसे संबोधनों से संबोधित करने की पंरपरा अत्यंत प्राचीन है। नारी के साथ इस प्रकार के संबोधन या विशेषण जोड़कर या तो उसे देवी मानकर पूजा जाता है या फिर अबला मानकर उसे सिर्फ   विलास की वस्तु मानी जाती रही है। लेकिन इस बात को भुला दिया जाता है नारी एक रूप शक्ति का भी रूप है, जिसका स्मरण हम औपचारिकता वश कभी-कभी ही किया जाता रहा है। नारी मातृ सत्ता का नाम है जो हमें जन्म देकर पालती पोसती और इस योग्य बनाती है कि हम जीवन में कुछ महत्तवपूर्ण कार्य कर सकें। फिर आज तो महिलाएं पुरुषों के समान अधिकार सक्षम होकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी प्रतिभा और कार्यक्षमता का पंचम लहरा चुकी है। उसने आज समाज को साबित कर दिया है कि वे भी किसी से किसी मामले में कम नहीं हैं। नई और आधुनिक शिक्षा तथा देश की स्वतंत्रता में नारी को घर की चारदीवारी से बाहर निकलने का अवसर दिया है, जरूरत इस शिक्षा के व्यापक प्रचार प्रसार की है जिससे ग्रामीण इलाकों की महिलाएं भी लाभान्वित हो सकें साथ ही महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति यादा से यादा जागरूक हो सकें। प्राचीन काल से चली आ रही परपंराओं पर भी नजर डाले तो ऐसा कोई भी युग नहीं है जिसके किसी भी कालखंड़ ये नहीं मिलेगा जहां नारी का किसी नव निर्माण में कोई सहयोग नहीं रहा हो, वैदिक युग की बात करें तो आर्यावर्त जैसे महान राष्ट्र के निर्माण की परिकल्पना में निश्चय ही गार्गी, मैत्रयी, अरूधंती जैसे महान् नारियों निश्चित ही योगदान रहा है। पौराणिक काल से चली आ रही ऐसी कई कथाएं हैं जिनमें नारियों की महानता की बातें हैं। झांसी की रानी, सरोजनी नायडु और इन जैसी ना जाने कितनी ही नारियों ने अपने बल पर देश का नाम रोशन किया और देश के लिए कुर्बान भी हो गई। हर धर्म, हर जाति, हर वर्ग की औरत की पीड़ा एक जैसी ही है। वो किसी भी धर्म, किसी भी जाति, किसी भी वर्ग में न सुरक्षित है न सुखी। औरत होने की सजा वो हर कहीं किसी न किसी रूप में भुगत रही है। हमने माना कि समय रहते औरत की स्थिति में थोड़ा सुधार आया है, मगर यह थोड़ा सुधार हमारे लिए काफी नहीं है। हमें भी ओर चाहिए। सबसे पहले तो हमें औरत के बीच से जाति, धर्म और वर्ग की संकीर्णताओं को समाप्त करना होगा। ये सब औरत को न केवल कमजोर बल्कि यथास्थितिवादी भी बनाती हैं। हमें इस धारणा को जड़ से खत्म करना होगा कि धर्म, जाति और वर्ग के हित औरत के हित से पहले हैं। इन संकीर्णताओं के बीच औरत अपने हितों को दरकिनार कर देती है। क्योंकि अंधा समाज उससे यह सब करने और मानने के लिए कहता है। कहता ही नहीं, बल्कि दबाव भी बनाता है। औरत को अब दबाव में रहने और जीने की आदत को त्यागना होगा। क्योंकि इस दवाब में न कोई सुख है, न ही होगी। ये सोच तभी समाज की बदल सकती हैं, जब हम प्रत्येक नारी को शिक्षित करने-बनाने का संकल्प लेंगे। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का शैक्षिक स्तर अब भी नीचे है। वैसे तो शहरों में भी महिलाओं की स्थिति ठीक नहीं है लेकिन अगर हम शहरों की बात छोड़ गांव-कस्बों का रूख करें, तो नारी-शिक्षा की स्थिति अब भी सोचनीय है। पुरानी धारणाओं पर चलने वाले परिवार आज भी लड़कियों को स्कूल भेजने में कतराते हैं। उनकी मान्यता है कि लड़की यादा पढ़ लिखकर क्या करेगी क्योंकि आगे चलकर करना उसे चौका-बर्तन ही है। हमें यही कोशिश तो करनी है कि हम लड़कियों-महिलाओं की इस स्थिति को बदल सके और उन्हें एक नई दुनिया में लेकर जाएं, जहां शिक्षा और ज्ञान का विस्तार हो। इससे सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि समाज और परिवारों की तमाम रूढ़ स्थापनाएं खत्म होंगी। बेटा-बेटी का फर्क मिटेगा और तो और उसे जाति, धर्म और वर्ग के बंधनों से मुक्ति मिलेगी। इस मिशन को पूरा करने के हमें ही आगे आना होगा चूंकि पुरानी एक कहावत है औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन या दोस्त होती हैं। तो यह हम पर ही निर्भर करता है कि हम दोस्ती निभाना चाहते है या दुश्मनी। हम सब जानते हैं आज भी हम महिलाओं के समक्ष एक नहीं हजारों चुनौतियां हैं। लेकिन हमें विश्वास है कि हम उन सब पर पार पा जाएंगी, क्योंकि अब हम अबला नहीं, एक शक्ति हैं। कल्पना कीजिए, उस समय की, जब हमारे देश-समाज की हर स्त्री शिक्षित होगी, तमाम बंधनों को तोड़ चुकी होगी, अपनी एक अलग पहचान बना चुकी होगी शायद तभी हम गर्व के साथ कह-बोल सकेंगे कि देखो, नए दौर और नई सदी की स्त्री जा रही है। मगर, यह सब संभव तभी हो सकेगा, जब हम अपने आस-पास हर लड़की, हर महिला को शिक्षित करने का फैसला लेंगे।  अतं: आज नारी केवल घर की चारदीवारी की रौनक बढ़ाने वाली वस्तु मात्र बनकर नहीं रह गई है। उसे भी अपनी जिंदगी जीने का हक है। लेकिन क्या वे भी अपनी जिंदगी अपने मन के मुताबिक आज भी जी सकती है? क्या कभी अपने सोचा है कि पुरुषों की तुलना में औरत का शरीर कमजोर होते हुए भी आखिर औरतों को पुरुषों की तुलना में मजदुरी कम क्यों दी जाती है? औरत से काम यादा कराया जाता है लेकिन मर्द को पैसा अधिक दिया जाता है। इसके अतिरिक्त क्या आजादी के इतने सालों बाद भी क्या हम सच में आजाद है? ना जाने कितने ही भेदभाव आज भी किए जा रहे है, अब हमें केवल एक दिन का सम्मान पाकर खुश नहीं होना, हमें हर दिन, हर पल और हर कदम पर सम्मान चाहिए और अपना हक भी। तो आज इस महिला दिवस पर हम संकल्प करते है कि हम इस भेद को मिटाकर रहेगें।
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कैसे मिलेगा हक

8, MAR, 2013, FRIDAY 

आशा त्रिपाठी

महिलाओं के हक के सवाल पर 6 मार्च को जब मिलेनियम स्टार अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लाग पर लिखा कि 'महिलाओं को भी पूरी आजादी से जीने का हक मिलना चाहिए। उनके खिलाफ अत्याचार रुकने चाहिए। महिलाओं का अपमान बंद होना चाहिए। इसे सम्मान के साथ स्वीकारना चाहिए कि हमारे होने महिलाओं में अहम योगदान महिलाओं का ही है। महिलाओं के खिलाफ उठने वाले हाथों को रोकना चाहिए और उनकी रक्षा की जानी चाहिए।' उन्होंने महिलाओं के खिलाफ अत्याचार रोकने के लिए चलाए गए अंतरराष्ट्रीय अभियान के प्रति अपना समर्थन जताया। इस अभियान की शुरुआत वर्ष 2008 में की गई थी। इसके तहत महिलाओं एवं पुरुषों से घरेलू हिंसा के खिलाफ खड़े होने का आह्वान किया जाता है। दुनिया भर में विधा के लिए आदर के साथ पहचान रखने वाले अमिताभ बच्चन की बातें तो वाकई अच्छी हैं, पर क्या शक, संदेह और घृणा की नींव पर खड़ी महिलाओं की रक्षा और उन्हें हक दिलाने की योजनाएं मूर्तरूप ले पाएंगी। यह सवाल सिर्फ आज नहीं, बल्कि वर्षों से उठते आ रहे हैं, किन्तु जवाब के तौर अब तक कुछ खास हाथ नहीं लगा है। खैर, हालात जो भी हो पर इसके लिए सिर्फ पुरुषों को ही दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए, क्योंकि अपनी दुर्गति के लिए महिलाएं भी कम दोषी नहीं हैं।  यह सबको पता है कि महिलाओं की दशा सभ्यता व संस्कृति का पैमाना होती है। यदि हमें किसी भी सभ्यता या संस्कृति के स्तर का निर्धारण करना है, तो महिलाओं की सामान्य दशा, उनके अधिकारों और स्तर को जानना जरूरी होता है। यदि समाज में स्त्रियों का स्तर ऊंचा है और तमाम अधिकार प्राप्त हैं तो उस सामाजिक संस्कृति को श्रेष्ठ कह सकते हैं।  मूल विषय की जानकारी लेने से पहले संक्षिप्त में प्राचीनकाल की चर्चा जरूरी है। प्राचीनकाल में भी सामाजिक व्यवस्था आज ही की तरह (कुछ क्षेत्रों को छोड़कर) पितृ सत्तामक थी।  स्त्रियों को बौध्दिक, आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठा प्राप्त थी।  महिला व पुरुष में कोई भेद नहीं था।  धार्मिक कार्यों, सामाजिक उत्सवों, समारोहों आदि में वो पुरुषों के साथ समान आसन ग्रहण करती थीं। पुत्र और पुत्री समाज में सामान रूप से शामिल होते थे। पुत्री का जन्म चिंताजनक नहीं था। बाल विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा नहीं थी। समारोहों और उत्सवों पर स्त्रियां श्रृंगार करती थीं और सभी त्यौहारों, समारोहों और उत्सवों में पुरुषों के सामान ही सम्मिलित होती थीं।  उनके घर के बाहर निकलने, घूमने-फिरने तथा आने-जाने की स्वतंत्रता पर कोई अंकुश नहीं था।  उनकी नैतिकता और सदाचार का स्तर भी ऊंचा था। वेदान्त में भी विदुषी अत्रैयी का जि मिलता है। विदुषी स्त्रियां सभाओं में दार्शनिक विचार-विमर्श और तर्क-वितर्क में भाग लेती थीं। कुछ विदुषी स्त्रियों ने तो ऋग्वेद की ऋचाएं भी रचीं। इस प्रकार भारत की नारी को बौध्दिक गौरव व सम्मान प्राप्त था। इसी क्षेत्र में कई अन्य विदुषियां रही हैं जिनमें लोपमुद्रा विश्ववारा, सिकता, विवावरी, घोष, इंद्राणी साची, सुलया, मैत्रैयी, गार्गी, वाचवनवि, खेमा, सुभद्रा, उपरा, उदुम्बरा, केशा, जयंती, सुभा, सुमेघा, अनोपमा आदि का नाम शामिल हैं। तब महिलाएं केवल विदुषी ही नहीं, अपितु वीर व साहसी भी हुआ करती थीं।  विवाह के पश्चात भी शिक्षा जारी रख सकती थीं। उनके द्वारा अध्यापन कार्य किया जाता था। बताते हैं कि भिक्षुणी खेमा की विद्वता की प्रशंसा सुनकर कौशल सम्राट प्रसन्नजीत स्वयं उनकी सेवा में गए थे।  जयंती, रेवा, रोहा, माधवी, अनुलक्ष्मी, पहई, दतई और शशिप्रभा आदि भी गुप्तकाल में महान, विदुषी व कवित्रियां हुई हैं।  इसी तरह अन्य कई विदुषियों का जि प्राचीनकाल में मिलता है जो स्त्रियों की उच्च स्तर की शिक्षा की ओर इंगित करता है। यूं कहें कि पुरातनकाल में नारी शक्ति का अत्यधिक महत्व था। वैदिक काल में भूमि की नारी, सामाजिक-धार्मिक व आध्यात्मिक क्षेत्रों में पुरूष की सहभागिनी थीं। गौरवपूर्ण अधिकार व सम्मान प्राप्त नारी आदिकाल से मां, बहन, प्रेयसी, पत्नी व पुत्री आदि रिश्तों को निभाती चली आ रही है। वैदिक काल में नारी ने अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, समाज व जीवन के हर क्षेत्र में अपना गौरव व सम्मान बढ़ाया था। भारत में हिन्दू शासकों के शासनकाल तक नारी का सम्मान उच्चकोटि का था। मध्य काल में भारत में मुगल सल्तनत के विस्तार के साथ-साथ, भारतीय समाज व नारी की स्थिति बिगड़ती गई एवं नारी के सामने एक के बाद एक समस्यायें पैदा होती रहीं। मुगलकाल वह काल था, जब भारतीय नारी ने अपने सतीत्व के रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति देने का कार्य किया। मध्यकाल में भारतीय नारी का जीवन संकटग्रस्त था। अंग्रेजी हुकूमत से लम्बे संघर्ष व अनगिनत बलिदानों के उपरांत आजादी हासिल करने के बाद, आजाद भारत के संविधान में भारतीय नारी को तमाम अधिकार प्रदान किये गये। आजाद भारत में दिनों-दिन राजनैतिक-सामाजिक व शिक्षा-रोजगार के क्षेत्रों में महिलाओं ने तेजी से तरक्की हासिल की। एक प्रधानमंत्री व कुशल प्रशासक के रूप में इंदिरा गांधी  ने विश्व पटल पर अपने अमिट हस्ताक्षर कर के भारत-भूमि की शान में बढ़ोतरी की। वर्तमान में भी राजनैतिक क्षेत्र में महिला शक्ति का वर्चस्व कायम है। सोनिया गांधी, मीरा कुमार, ममता बनर्जी, मायावती, जयललिता आदि की नेतृत्व क्षमता व कार्यशैली का लोहा विपक्षी राजनैतिक दल भी मानते हैं। कुछ माह पहले तक देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति पर भी नारी शक्ति के रूप में प्रतिभा पाटिल आसीन थीं।  गौरवशाली इतिहास और कानूनी अधिकारों के बावजूद आम महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। ग्रामीण अंचलों में नारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार होने के बावजूद अब तक अज्ञान की कालिमा मिटी नहीं है। अशिक्षित महिलाओं का अपने अधिकारों की जानकारी न होना, उनका अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न होना ही महिला की पीड़ा का सबसे बड़ा कारण है। विभिन्न कार्यमों के माध्यम से सरकारें महिलाओं को जागरूक करने का प्रयास गैर सरकारी संगठनों व सरकारी महकमों के माध्यम से जारी रखे हुए हैं। यह सत्य है कि बगैर शैक्षिक व कानूनी जागरूकता के वर्तमान युग में महिलाओं को अधिकार व सम्मान मिलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। यह दुर्भाग्यपूर्ण किन्तु सत्य है कि 'यत्र नारी पूयंते, तत्र देवता रमन्ते' की अवधारणा वाले देश में सामाजिक व पारिवारिक स्तर पर स्त्री की दशा सोचनीय व दयनीय है। समाज के नैतिक पतन का परिणाम है कि जन्मदात्री नारी को पारिवारिक हिंसा का शिकार होना पड़ता है। महिलाओं को भारत में कानून प्रदत्त तमाम अधिकार हैं। परिवार व रिश्तों को संजाने-संवारने की महती दायित्व निभाने वाली आम महिला आज अपने अधिकारों से वंचित है। जागरूकता व शिक्षा के अभाव में आम महिला के साथ पारिवारिक स्तर पर सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। परिवार की इजत, बाल-बच्चों के पालन-पोषण एवं चौके-चूल्हे के चव्यूह में फंसी नारी मन मसोस कर, अपना कर्तव्य निभाती चली जा रही है। यह ठीक है कि शीर्ष पदों पर महिलाएं पहुंच कर महिला शक्ति का परचम लहरा रहीं है। परन्तु समाज की प्राथमिक इकाई परिवार में महिला अपनी जिम्मेदारियों एवं घरेलू हिंसा के पाटों के बीच पिसती जा रही है। भारत में हुए एक सर्वे के परिणामस्वरूप हर 14 घंटे में एक महिला का रेप होता है। भारत बहुत ही तेजी से बढ़ने वाली इकॉनोमी है। घरेलू हिंसा यहां की महिलाओं के मानसिक तनाव का एक कारण है। हाल में ही हुए कुछ ऐसे मामले हुए हैं जो जनता का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं।  2012 में 'थॉम्पसन रॉयटर्स फाउंडेशन' के पोल के मुताबिक, भारत में महिलाओं की स्थिति अन्य जी-20 देशों के मुकाबले बहुत ही खराब है। मेरा मानना है कि स्थितियां तो और भी खराब होंगी, क्योंकि महिलाओं के प्रति भारतीयों की सोच में बदलाव कम ही दिख रहा है। 21 वीं सदी के 13 वें वर्ष में भी लोगों के मन में महिलाओं के प्रति घृणा, शक और संदेह की स्थिति देखी जा रही है। इस स्थिति में यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि महिलाओं को उनका हक मिलेगा।
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स्त्री अधिकार और आंबेडकर

Monday, 14 April 2014

सुजाता पारमिता

जनसत्ता 14 अप्रैल, 2014 : आंबेडकर ने कहा था, ‘मैं नहीं जानता कि इस दुनिया का क्या होगा, जब बेटियों का जन्म ही नहीं होगा। ’ स्त्री सरोकारों के प्रति डॉ भीमराव आंबेडकर का सर्मपण किसी जुनून से कम नहीं था। छियासी साल पहले, अट्ठाईस जुलाई 1928 के दिन, उन्होंने बंबई विधान परिषद में स्त्रियों के लिए प्रसूति से जुड़े पहलुओं से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण विधेयक पेश किया गया था। उसका जोरदार समर्थन करते हुए उन्होंने कहा था कि यह देश के हित में है कि मां को बच्चे के जन्म के दौरान आराम मिले। सरकारी और निजी, दोनों क्षेत्रों के अंतर्गत आने वाले तमाम कारखाने, खदान या ऐसे सभी उपक्रम जहां भारी संख्या में स्त्रियां मजदूरी करती हैं और जो खतरनाक हैं और जिनमें काम करना उनके लिए जानलेवा भी सिद्ध हो सकता है, यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे इस खर्च का वहन करें, क्योंकि वे स्त्री श्रमिकों को तभी काम पर रखते हैं, जब उन्हें इससे ज्यादा फायदा होता है। इस विधेयक का मुख्य आधार अन्य सुविधाओं के साथ ही महिला श्रमिकों के लिए वेतन समेत छुट््िटयों का प्रावधान था। आंबेडकर ने ब्रिटेन सरकार से इस विधेयक को केवल बंबई विधान परिषद क्षेत्र तक सीमित न रख कर देश भर में लागू किए जाने की अपील की। जबकि भारतीय सामाजिक परंपरा में दलितों और स्त्रियों के लिए अपने श्रम के एवज में किसी सहूलियत की उम्मीद करना लगभग अपराध माना जाता था। इसके बाद आंबेडकर ने बंबई विधान परिषद में पीजे रोहम द्वारा नवंबर, 1938 में जनसंख्या नियंत्रण विधेयक के रूप में एक ऐतिहासिक विधेयक पारित करवाया। उस विधेयक ने मनु के सदियों से चले आ रहे उस दर्शन को ध्वस्त कर दिया, जिसमें स्त्री को एक ऐसे गुलाम के रूप में जीने को कहा गया था जिसका अपनी ही देह और कोख पर अधिकार न हो। उस दर्शन के मुताबिक उसका जन्म स्त्री के रूप में इसीलिए हुआ है कि वह पुरुष की सेवा करे, उसे तृप्त करे और बच्चे पैदा करने का साधन बनी रहे। यह सिद्धांत सदियों से भारतीय स्त्रियों की भयानक स्थिति के लिए जिम्मेदार रहा और आज भी उसके खिलाफ कई रूपों में संघर्ष जारी है। भारत के इतिहास में पहली बार इस विधेयक ने स्त्रियों को यह अधिकार दिया कि अनचाहे गर्भ से मुक्ति उनका अपना निर्णय होगा और अपनी देह और कोख पर उनका अधिकार। साथ ही आंबेडकर ने तत्कालीन सरकार से ऐसी व्यवस्था करने की अपील की कि हर भारतीय स्त्री को अनचाहे गर्भ से मुक्ति उसकी मर्जी से और आसानी से मिले। आंबेडकर को वायसराय की काउंसिल में बीस जुलाई 1942 को बतौर श्रम-सदस्य शामिल किया गया। वहां अपने चार साल (1942-46) के कार्यकाल में उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण कानून बनाए और कई पुराने कानूनों में बदलाव किए। यह उन्हीं की देन है कि भारतीय श्रम कानून का स्वरूप न केवल बदला, बल्कि कहीं ज्यादा मानवीय हुआ और महिला श्रमिकों के लिए विशेष सुविधाएं लागू की गर्इं। कारखानों और खदानों में काम के घंटे घटा कर फिर से निर्धारित किए गए। स्त्री और पुरुष श्रमिकों के लिए समान वेतन के अधिकार का भी प्रावधान किया गया। छोटे बच्चों के लिए काम की जगह के आसपास ही पालनाघर बनाए गए। स्वास्थ्य और जीवन बीमा की शुरुआत की गई, सामाजिक सुरक्षा अधिनियम बनाया गया। आज देश भर में जो कर्मचारी राज्य बीमा निगम के अस्पताल चलाए जा रहे हैं, इस नीति को भी आंबेडकर ने ही मूर्त रूप दिया था। निश्चित तौर पर उनका योगदान श्रम कानून के क्षेत्र में बहुत व्यापक और सराहनीय था। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उस समय पूंजीपति वर्ग द्वारा चलाए जा रहे कारखानों में पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं थी और वह आंबेडकर के प्रयासों से ही संभव हो सकी। यों भी, पानी का अधिकार दलितों के लिए हमेशा ही संघर्ष का कारण रहा। खुद आंबेडकर इस दर्द के साथ ही जन्मे और इस समस्या का सामना किया। अप्रैल 1947 में डॉ आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल का मसविदा तैयार कर संविधान सभा में रखा, जिस पर बहस होनी थी। यह बिल मुख्य रूप से संयुक्त या अविभाजित  हिंदू परिवार में संपत्ति के अधिकार से संबंधित था। यह अगर उस वक्त पारित हो गया होता तो स्त्रियों को स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता था। यह सिर्फ स्त्री अधिकारों पर आधारित था और यही इस बिल की खासियत थी। इसमें स्त्रियों को अपनी मर्जी से विवाह और तलाक, पति से अलग रहने पर गुजारा भत्ता, गोद लेने (बच्ची को भी गोद लिए जाने) और बच्चों के संरक्षण का भी अधिकार दिया गया था। संपत्ति का विभाजन होने पर उसमें घर की स्त्रियों के रूप में मां, पत्नी और बेटी, सभी का हिस्सा निर्धारित किया गया। इस क्रांतिकारी बिल से उस वक्त तूफान आ गया था। जिस देश में स्त्री को इंसान होने के बुनियादी अधिकारों से भी वंचित किया गया था, उसे एक साथ इतने सारे हक दिए जाने वाले थे। लेकिन आखिरकार फिजूल की प्रक्रिया से जूझते रहने के बाद इस बिल को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। हालांकि इसमें सुझाए गए चार प्रावधानों को तब किसी तरह पारित किया गया। स्वतंत्र भारत में जब आंबेडकर को संविधान निर्माण का जिम्मा दिया गया तो जैसी उनसे उम्मीद थी, उन्होंने जाति, धर्म और गोत्र के सारे बंधन तोड़ कर सभी भारतीयों के लिए समता के अधिकार को प्राथमिकता दी। आज भारतीय संविधान अपने सभी नागरिकों को समान अधिकार की गारंटी देता है, चाहे वह अंबानी हों या घरों में बर्तन मांज कर परिवार का पेट भरती स्त्रियां या फिर भीख मांग कर गुजारा करते लोग। खासतौर पर स्त्रियों के साथ किसी भी आधार पर भेदभाव को कानूनी तौर पर जुर्म माना गया। चार साल बाद कानूनमंत्री के रूप में आंबेडकर ने एक बार फिर हिंदू कोड बिल को संसद में रखा, लेकिन उनकी तमाम कोशिशें बेकार हो गर्इं जब यह बिल भारी मतों से पराजित हो गया। हिंदू कोड बिल का पराजित होना आंबेडकर की निगाह में उनकी निजी हार थी। स्त्री अधिकारों के प्रति वे कितने संवेदनशील थे, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस हार के बाद उन्होंने 27 नवंबर 1951 को कानूनमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। तब से आज तक इस बिल को कई टुकड़ों में पारित किया गया, लेकिन एक तरह से देखें तो 2006 में बने घरेलू हिंसा कानून ने उनके सपने को पूरा किया। आंबेडकर महिलाओं और दलितों की शिक्षा, प्रगति और जागरूकता के लिए जिंदगी भर संघर्ष करते रहे। उनके सभी सामाजिक आंदोलनों में दलित स्त्रियां भारी संख्या में शामिल रहीं, चाहे वह पानी के सवाल पर हुआ ‘महाड सत्याग्रह’ हो या मंदिर प्रवेश के लिए ‘काला राम सत्याग्रह’ या फिर 1942 में नागपुर में आयोजित दलित महिला अधिवेशन, जिसमें पच्चीस हजार दलित महिलाओं ने शिरकत की थी। उस अधिवेशन में आठ महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए, जिनमें से एक, भारतीय स्त्रियों के लिए तलाक के अधिकार से संबंधित था। कमजोर सामाजिक तबकों की स्त्रियों की स्थिति बदलने का संघर्ष आंबेडकर के लिए एक ‘महायुद्ध’ था, जिससे वे एक योद्धा की तरह लड़े। उनका संघर्ष देश के उस तबके के लिए था जो सम्मान और न्याय के लिए सदियों से संघर्ष कर रहा था। आंबेडकर को दलितों और स्त्रियों के लिए हर उस स्थिति से लड़ना था जो उनके हालात के लिए जिम्मेदार थी। उन्होंने समय-समय पर ऐसे कई आंदोलन किए, जिन्होंने हिंदू धर्म की जड़ों पर चोट की। पच्चीस दिसंबर 1927 को उन्होंने महाड (महाराष्ट्र) में मनु-स्मृति को जलाया था, जिसे ‘हिंदू धार्मिक संविधान’ माना जाता रहा और जो दलितों और स्त्रियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार था। उस वक्त यह ऐसा ‘शॉक-ट्रीटमेंट’ साबित हुआ जिससे हिंदुत्व की जड़ें हिल गर्इं और जिसने भारतीय समाज को यह सोचने पर बाध्य कर दिया कि धर्म से भी विद्रोह किया जा सकता है; धर्म पत्थर पर लिखा फरमान नहीं है, जिसे बदला नहीं जा सकता। इन्हीं हालात में दलितों और स्त्रियों के बीच धार्मिक बेड़ियां टूटीं, अंधविश्वास के ‘उद्योग’ को भारी धक्का पहुंचा, शिक्षा और जागरूकता की शुरुआत हुई। आंबेडकर जानते थे कि वे जिस वर्ग के लिए संघर्ष कर रहे हैं वह सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक, सब तरह से कमजोर है। उस स्थिति से लड़ना और जीतना कोई आसान काम नहीं। यह चौतरफा लड़ाई थी, जिसमें एक ओर ताकतवर हिंदू धर्म-रक्षक भी थे। लंबी चली लड़ाई में आंबेडकर ने कई आंदोलन किए। मंदिर प्रवेश के मुद््दे पर उन्होंने 1927-30 के बीच दलितों के साथ नाशिक के काला राम मंदिर, पूना के पर्वती और अमरावती के अंबादेवी मंदिर में प्रवेश किया, जहां उन्हें हिंसा का भी सामना करना पड़ा। हिंदू धर्म से टक्कर आंबेडकर के लिए बेमानी था, लेकिन दलितों के बीच स्वाभिमान जगाने के लिए यह जरूरी था। 1929 में येऊला के अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि दलितों को हिंदू धर्म में अत्याचार सहते रहने की कोई आवश्यकता नहीं, वे चाहें तो किसी भी धर्म में प्रवेश कर सकते हैं। इसी के बाद बारह महारों (दलित) ने हिंदू धर्म त्याग कर इस्लाम को अपना लिया। इस घटना से हिंदू धर्माधीशों के होश उड़ गए। आंबेडकर ने अपने अंतिम दिनों तक आंदोलन को जिंदा रखा। अपनी मृत्यु से महज दो महीने पहले उन्होंने हिंदू धर्म त्याग कर चौदह अक्तूबर 1956 को नागपुर की दीक्षा भूमि में लगभग चार लाख दलितों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उसे आज तक दुनिया का सबसे बड़ा धर्म परिवर्तन माना जाता है। बौद्ध धर्म में प्रवेश की प्रक्रिया भारत में आज भी जारी है। आजादी के अड़सठ सालों बाद भारत में सवर्ण स्त्रियों की दशा में काफी बदलाव आया है। लेकिन दलित स्त्रियां आमतौर पर आज भी लगभग उसी स्थिति में हैं। आधुनिक स्त्रीवादी आंदोलन भारत में सत्तर के दशक में शुरू हुआ, लेकिन उसका नेतृत्व अब तक सवर्ण महिलाओं के ही पास है और उनके इर्दगिर्द घूमता है। कुछ दलित स्त्रियों ने इस मुद््दे पर जरूर आंदोलन किया, लेकिन उसका फायदा इस समूचे आंदोलन के नेतृत्व-वर्गों को ही मिला, उन्हें नहीं, जो वास्तव में ज्यादा शोषण का शिकार थीं। भारत में स्त्रियों के अधिकार और सम्मान के लिए सबसे ज्यादा ज्योतिबा फुले, उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले और डॉ आंबेडकर ने संघर्ष किया, लेकिन महाराष्ट्र के स्त्रीवादी आंदोलन को छोड़ शेष भारत में तो उनका नाम भी किसी स्त्रीवादी आंदोलन में नहीं लिया जाता। यह ब्राह्मणवादी मानसिकता जहां स्त्रीवादी आंदोलन को सीमित कर रही है, वहीं इससे दलित स्त्रीवादी आंदोलन को अलग विस्तार मिल रहा है। दलित स्त्रीवादी आंदोलन का इतिहास काफी पुराना है और उन्हें लड़ना आता है। लेकिन इस अलगाववादी सोच से आखिरकार किसका नुकसान होगा, यह जाहिर-सी बात है।
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स्त्री सशक्तीकरण का पैमाना

Saturday, 08 March 2014

सुषमा वर्मा

जनसत्ता 08 मार्च, 2014 : यूपीए सरकार के शासन-काल में घटती विकास दर और बढ़ी महंगाई की मार का असर यों तो पूरे देश पर दिखाई देता है, लेकिन इसकी सबसे गहरी चोट महिलाओं पर पड़ी है। सरकार ने अपनी मध्यावधि आर्थिक समीक्षा में मुद्रास्फीति को विकास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा माना है। इस समीक्षा में सरकार ने जितना बताया है उससे ज्यादा छिपाया है। पूरा सच जानने के लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की ताजा रिपोर्ट पर एक नजर डालना जरूरी है।  यह रिपोर्ट बताती है कि सन 2009-10 और 2011-12 यानी दो वर्ष के अंदर गांवों में महिला श्रमिकों की संख्या में नब्बे लाख की कमी आई। निश्चय ही इसका असर दलित और गरीब परिवारों पर सर्वाधिक पड़ा है। गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए इस वर्ग की महिलाओं के लिए मजदूरी करना जरूरी होता है, लेकिन बाजार की मेहरबानी पर टिकी अर्थव्यवस्था ने उन्हें रोजगार-बाजार से बाहर धकेल दिया है। नतीजा सामने है। महिलाओं पर अत्याचार, हिंसा और बलात्कार की घटनाओं में इजाफा हुआ है। आर्थिक तंगी से सामाजिक तनाव बढ़ा है और तनाव बढ़ने पर सबसे पहले सबसे कमजोर कड़ी टूटती है। यह कहने की जरूरत नहीं कि महिलाएं हमारे समाज की सबसे कमजोर कड़ी हैं। वैश्वीकरण और बाजार आधारित आर्थिक मॉडल अपनाने के लगभग बीस बरस पहले सन 1972-73 में श्रमशक्ति में महिलाओं का योगदान बत्तीस फीसद था। उदारीकरण की राह पकड़ने के बीस बरस बाद 2010-11 में यह संख्या घट कर अठारह प्रतिशत रह गई। हमारे नब्बे फीसद मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की संख्या तो और अधिक है। उनके लिए सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा का कोई इंजताम नहीं है। कार्यस्थल पर न तो बच्चों के रख-रखाव का प्रबंध होता है और न ही आने-जाने की व्यवस्था। संयुक्त परिवार व्यवस्था चरमरा जाने से मजदूर औरतों को अपने बच्चों की देखभाल का काम खुद करना पड़ता है और इसकी वैकल्पिक व्यवस्था न होने पर उन्हें अक्सर काम छोड़ना पड़ता है। काम छोड़ने का दुष्परिणाम भी सबसे पहले उन्हें और उनके बच्चों को भोगना पड़ता है। कुपोषण की समस्या को इस कड़वे सच के साथ जोड़ कर समझा जाना चाहिए। एनएसएसओ की रिपोर्ट के अनुसार गांवों में एक की कमाई पर निर्भर परिवारों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इसका अर्थ यही हुआ कि पारिवारिक आय में कमी आ रही है। दुर्भाग्यवश अगर किसी घर में कमाने वाले सदस्य की नौकरी छूट जाए, वह दुर्घटनाग्रस्त हो जाए या उसकी मृत्यु हो जाए तो पूरे परिवार के बिखर जाने की आशंका प्रबल हो जाती है। वर्ष 1993-94 में जहां एक से ज्यादा सदस्यों की कमाई पर निर्भर ग्रामीण परिवार छियासठ प्रतिशत थे, वहीं 2011-12 में उनकी तादाद घट कर चौवन प्रतिशत रह गई। इस अवधि में बिना किसी कमाई वाले परिवारों की संख्या में भी दो फीसद का इजाफा हुआ। संकेत चिंताजनक हैं। रोजगार के मोर्चे पर शहरों में रहने वाली महिलाओं की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है। शहरों में भी एक से ज्यादा सदस्यों की कमाई पर आश्रित परिवारों की संख्या घटी है। वर्ष 2010-11 में ऐसे परिवार छत्तीस प्रतिशत थे, जबकि 1993-94 में उनकी संख्या उनतालीस फीसद थी। और ताजा आंकड़ों से भी स्थिति में सुधार का संकेत नहीं मिलता। कुल मिला कर हालात बिगड़ रहे हैं। 2009-10 में पंद्रह वर्ष से ज्यादा आयु की गैर-कामकाजी लड़कियों और महिलाओं की संख्या पैंसठ फीसद थी। मतलब यह कि काम करने की सबसे बेहतर उम्र में भी ये बेकार बैठी थीं। लड़कियों की शिक्षा में सुधार के बावजूद उन्हें नौकरी पाने में कठिनाई आ रही है। कड़वा सच यह है कि महंगाई के दौर में साधारण और गरीब परिवारों के लिए एक कमाई पर परिवार का खर्च चलाना लगभग असंभव हो गया है। सिकुड़ते रोजगार अवसरों के कारण चाहते हुए भी महिलाएं अपने घर की माली हालत सुधारने में कोई योगदान नहीं दे पाती हैं। एनएसएसओ की रिपोर्ट से यह खुलासा भी हुआ है कि शिक्षा के प्रसार के बरक्स शिक्षित युवाओं को उनकी योग्यता के अनुरूप रोजगार नहीं मिल पाता है। आज देश की लगभग आधी आबादी तीस वर्ष से कम आयु वर्ग में है। नौजवान पीढ़ी देश का भाग्य बदलने की ताकत रखती है, लेकिन अगर युवा वर्ग को काम न मिले तो वह विध्वंस में जुट जाता है। रोजगार देने में लड़कियों और महिलाओं से भेदभाव तो बरसों से बरता जाता रहा है। छंटनी की कैंची भी सबसे पहले उन्हीं पर चलती है। अनिश्चित रोजगार के दौर में महिलाओं के यौन शोषण की आशंका बढ़ जाती है। पेट पालने या घर चलाने की मजबूरी के कारण अन्याय सह कर भी वे अक्सर चुप्पी साधे रहती हैं। रोजगार के मोर्चे की भयावह स्थिति स्पष्ट करने के लिए एक और आंकड़ा देना जरूरी है। वर्ष 2007 में 28.5 प्रतिशत श्रमशक्ति को साल में छह माह से ज्यादा समय तक कोई काम नहीं मिल पाया था, जबकि अब यह संख्या बढ़ कर पैंतीस फीसद हो गई है। मतलब यह कि देश की एक तिहाई से ज्यादा श्रमशक्ति काम न मिलने के कारण आधे साल से ज्यादा समय निठल्ली बैठी रहती है। जबरन घर बैठाए जाने वालों की कतार में महिलाओं का स्थान अव्वल है। महंगाई और बेराजगारी के कारण उपभोक्ता सामग्री बाजार भी लगातार बेरौनक होता जा रहा है। टीवी, कार, मोबाइल, मोटरसाइकिल, फ्रिज, एसी और प्रसाधन सामग्री की बिक्री घट रही है। यह सारा सामान मध्य और उच्च मध्यवर्ग का शगल है। गरीब तबकों में ऐसी चीजें अय्याशी मानी जाती हैं। बेरोजगारी की चोट से जब मध्यवर्ग भी छटपटा रहा हो तब गरीबों की दुर्दशा की कल्पना की जा सकती है। इसी वजह से घरेलू बचत में चिंताजनक गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 2009-10 में घरेलू बचत को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 25.3 फीसद आंका गया, जबकि वर्ष 2012-13 आते-आते यह गिर कर 21.9 प्रतिशत रह गई। बचत कम होने का असर विकास पर जो पड़ता है सो पड़ता ही है, आपात स्थिति में आम परिवार के लिए यह कहर साबित होता है। हारी-बीमारी, शादी-ब्याह या अन्य बड़ी जरूरत के वक्त बचत न होने पर गरीब और निम्न मध्यवर्ग को कर्ज लेना पड़ता है और कर्ज न चुकाने पर परिवार की महिलाओं और बच्चों को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं। सरकारी अध्ययनों से एक और चौंकाने वाला सच सामने आया है। महंगाई की मार महानगरों के मुकाबले छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में ज्यादा पड़ती है। दिल्ली (नौ फीसद) के मुकाबले गाजियाबाद (ग्यारह फीसद), कोलकाता (ग्यारह फीसद) के मुकाबले दुर्गापुर (बाईस फीसद), बंगलुरु (तेरह फीसद) के मुकाबले मैसूर (चौदह फीसद) और हैदराबाद (नौ फीसद) के मुकाबले विजयवाड़ा (चौदह फीसद) ज्यादा महंगे शहर हैं। छोटे कस्बों और गांवों की स्थिति तो और विकट है। वहां महानगरों के मुकाबले खाने-पीने और दैनिक उपयोग का सामान तो महंगा है ही, साथ ही मकानों का किराया भी ज्यादा है। यह तो सर्वमान्य सच है कि महानगरों की अपेक्षा छोटे कस्बों और गांवों में रोजगार के अवसर कम होते हैं। वहां महिलाओं को नौकरी मिलने की संभावना तो और भी कम होती है। इसका अर्थ यही हुआ कि छोटे नगरों या कस्बों में रहने वाले परिवारों पर दोहरी मार पड़ती है। एक तो आसानी से काम नहीं मिलता, दूसरे, ऊंची महंगाई का दंश भी झेलना पड़ता है। यह दोहराना जरूरी है कि इस खराब स्थिति का सबसे ज्यादा खमियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ता है। अर्थशास्त्र का सिद्धांत है कि जब किसी देश में आर्थिक विकास का पहिया तेजी से घूमता है तब लोग खेती छोड़ कर उद्योगों की ओर पलायन करते हैं, लेकिन दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना देख रहे हमारे देश में आज भी लगभग आधी आबादी खेती पर निर्भर है। लागत बढ़ने और जोत का आकार लगातार कम हो जाने से अब खेती घाटे का धंधा बनती जा रही है। इसी कारण लाखों किसान खेती छोड़ शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। देश में खेतिहर महिला श्रमिकों की संख्या करोड़ों में है। इस कारण वे भी इस पलायन का बड़ा हिस्सा हैं। खेत में काम करने वाली अधिकतर श्रमशक्ति अशिक्षित और अकुशल होती है, इसलिए उसे शहरों में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में ही काम मिलने की गुंजाइश रहती है। दुर्भाग्यवश मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में रोजगार बढ़ने के बजाय कम हुए हैं। गांवों में बेकारी का दंश झेल रहे मजदूरों और किसानों को शहर में आकर भी काम नहीं मिल पाता। जब से सरकार ने रोजगार गारंटी योजना लागू की है, गांवों से श्रमशक्ति का पलायन घट गया है। लाखों किसान-मजदूर शहरों से वापस गांव लौटे हैं। अर्थशास्त्र की कसौटी पर कसें तो गंगा उलटी बह रही है। शहरों से गांव लौटने वाली आबादी में बड़ी तादाद महिलाओं की है। उन्हें लगता है कि शहर में बेकार बैठे रहने से अच्छा तो गांव में छह महीने मनरेगा में मजदूरी करना है। इन सारी कहानियों से यही सबक मिलता है कि आर्थिक विकास के मौजूदा मॉडल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ने के बजाय घट रही है। सरकार का महिला सशक्तीकरण का नारा खोखला है। आम चुनाव सिर पर हैं, लेकिन किसी बड़े राजनीतिक दल ने देश की आधी आबादी के उद्धार का कोई ठोस वचन नहीं दिया है। कन्या भू्रण हत्या, महिला कुपोषण, बच्चियों की शिक्षा और महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसक घटनाओं का मूल कारण उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति है। जब तक औरतें अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जातीं, तब तक उनके प्रति दकियानूसी सामाजिक दृष्टिकोण बदलना भी असंभव है। आर्थिक अत्मनिर्भरता से ही समाज में बराबरी का दर्जा पाया जा सकता है। बेरोजगार और घर की चारदीवारी में कैद औरत दया की पात्र हो सकती है, सम्मान की नहीं। महिलाओं की बढ़ती बेराजगारी कहीं उनके सम्मान और सुरक्षा को जान-बूझ कर चोट पहुंचाने की साजिश तो नहीं है।


शिशु लिंगानुपात




दाग मिटाने का सपना

:Sun, 24 Aug 2014

लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के स्वतंत्रता दिवस भाषण ने सबका ध्यान खींचा और इसकी बहुत तारीफ भी हुई। अपने खास तौर-तरीकों और भाषा शैली के माध्यम से उन्होंने कुछ ऐसे मुद्दों को उभारा जो आज भी हमारे माथे पर किसी कलंक की तरह हैं। हालांकि जिस एक बात की उन्होंने बड़ी सुविधा से उपेक्षा कर दी वह है उनके अपने गृह राज्य का रिकॉर्ड। गुजरात का उल्लेख तेज आर्थिक विकास वाले राच्य के रूप में किया जाता है, लेकिन सच्चाई यह है कि इन सामाजिक बुराइयों से निपटने के मामले में इस राच्य का रिकार्ड बहुत प्रभावशाली नहीं है। प्रधानमंत्री की चिंता के संदर्भ में पहली बात यही है कि कन्या भ्रूणहत्या और कुपोषण आदि कारणों से शिशुओं की मृत्यु के चलते शून्य से छह वर्ष के आयु वर्ग में लिंगानुपात में गिरावट आई है और यह बहुत सही समय है जब इस पर त्वरित ध्यान दिया जाए। शिशु लिंगानुपात में गिरावट बालिकाओं के प्रति सामाजिक भेदभाव को दर्शाती है। इस आयु समूह में असमानता का प्रभाव आने वाले वषरें में बड़े आयु समूहों पर दिखेगा, जिसके परिणाम कहीं अधिक खतरनाक होंगे। 0-6 आयु वर्ग में प्रति 1000 लड़कों पर 950 लड़कियों की संख्या का अनुपात कुछ हद तक स्वीकार्य हो सकता है, लेकिन भारत में यह अनुपात 1991 में 945 और 2011 में 927 पहुंच गया और ताजा आकलनों के मुताबिक यह औसत और अधिक गिरकर 914 पहुंच गया है। सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों ने इस मसले पर अपनी व्यथा-चिंता जाहिर की है। पिछले दो दशकों में सामाजिक और राजनीतिक तौर पर प्रतिबद्ध प्रयासों के कारण पंजाब और हरियाणा जैसे राच्यों में स्थिति में सुधार हुआ है। यह दोनों ही राच्य निम्न शिशु लिंगानुपात के लिए बदनाम रहे हैं। 2011 की जनगणना रिपोर्ट से पता चलता है कि 2001 में 798 की तुलना में पंजाब में वर्तमान में शिशु लिंगानुपात 846 है, जबकि इसके पड़ोसी हरियाणा में 2011 में यह औसत 830 दर्ज किया गया, जो कि 2001 में 819 था। हालांकि शिशु लिंगानुपात के ये आंकड़े अभी भी अस्वीकार्य हैं, लेकिन इस बारे में हालिया रुझान उत्साहजनक है। दिल्ली में भी स्थिति चिंताजनक है। ऐसा इसलिए, क्योंकि दिल्ली में शिशु लिंगानुपात 2001 में जहां 868 था वहीं 2011 में यह अनुपात और अधिक गिरकर 866 पहुंच गया। यदि हम गुजरात की बात करें जिसे समूचे देश के लिए विकास के मॉडल के तौर पर पेश किया जाता है तो स्थिति कोई बहुत अलग नहीं है। गुजरात में 2001 में शिशु लिंगानुपात 883 था, जो 2011 में मामूली रूप से बढ़कर 886 पहुंच गया। निश्चित ही यहां अनुपात में मामूली बढ़त हुई है, लेकिन दक्षिण राच्यों की तुलना में स्थिति बहुत खराब कही जा सकती है। केरल में यह अनुपात 959 है, जबकि तमिलनाडु और कर्नाटक में यह अनुपात 946 है। पंजाब, हरियाण, दिल्ली और गुजरात समृद्ध राच्यों में आते हैं, जिस कारण यहां निम्न शिशु लिंगानुपात थोड़ा अधिक चिंतित करता है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, झारखंड, उत्ताराखंड, राजस्थान और जम्मू एवं कश्मीर में भी 2001 से 2011 के बीच शिशु लिंगानुपात में तेज गिरावट दर्ज की गई है। हालांकि यह भी एक सच है कि औसतन कुल लिंगानुपात 2001 से 2011 के बीच समूचे देश में बढ़ा है, जबकि तीन राच्यों बिहार, जम्मू एवं कश्मीर तथा प्रधानमंत्री के अपने आदर्श राच्य गुजरात में इसमें गिरावट दर्ज की गई है। गुजरात में 2011 में कुल लिंगानुपात 919 था, जबकि केरल में यह अनुपात 1084 और तमिलनाडु में 996 दर्ज किया गया। गुजरात नहीं, बल्कि दक्षिण के यह दोनों राच्य सामाजिक कल्याण और मानव विकास के मामले में शेष पूरे देश को बहुत कुछ सीख देते हैं। दूसरी बात यह कि भारत में बड़े पैमाने पर शौचालयों के अभाव को लेकर हमारे प्रधानमंत्री चिंतित नजर आते हैं। हालांकि इस मामले में गुजरात कोई अपवाद नहीं है। मैं पहले भी लिख चुका हूं कि खुले में शौच हमारी निजता, सुरक्षा और महिलाओं के आत्मसम्मान पर एक तरह की गंभीर चोट है। इतना ही नहीं यह हमारे बच्चों में गंभीर कुपोषण का एक बड़ा कारण भी है। दो वर्ष पहले उनके राजनीतिक सहयोगियों ने मेरे प्रति बहुत आक्रामक रुख अपनाया था जब मैंने कहा कि मंदिर से कहीं अधिक महत्वपूर्ण शौचालय हैं और यदि शौचालय नहीं तो दुल्हन नहीं। सफाई पहले और मुक्ति अथवा मोक्ष बाद में। इसी तरह मैंने कहा था कि भारत में शौचालय की तुलना में महिलाओं के पास मोबाइल अधिक हैं। यदि गंदगी का नोबेल पुरस्कार हो तो भारत निश्चित ही इसे जीतने का हकदार होगा। मेरे द्वारा दिया गया यह बयान राष्ट्र को जागरूक बनाने के लिए था ताकि इस दिशा में कुछ सार्थक कदम उठाए जा सकें, जो शौचालय निर्माण से कहीं आगे की बात थी। सफाई-स्वच्छता को लेकर आज जिस बात की सबसे अधिक आवश्यकता है वह है एक तरह की सांस्कृतिक क्रांति की। लाल किले से दिए अपने भाषण में प्रधानमंत्री स्वच्छता तक ही सीमित रहे। प्रधानमंत्री ने समूचे देश में आज भी मैला ढोने की बुराई के बने रहने पर भी ध्यान आकर्षित किया। हालांकि इस बारे में राच्यों ने अदालतों को हलफनामा दिया है कि हमारी जाति व्यवस्था द्वारा आरोपित इस सबसे खराब अमानवीय कार्य को खत्म किया जा चुका है। 2011 की जनगणना से पता चलता है कि देश में अभी भी 26 लाख लोग इस कार्य में लगे हुए हैं, जिसमें प्रधानमंत्री का गृह राच्य भी शामिल है। इसका मतलब है कि कुछ लाख परिवार अभी इस सबसे घृणित कार्य में लगे हुए हैं। सितंबर 2013 में संप्रग सरकार ने संसद में इस बारे में एक कठोर और व्यापक नया कानून पारित कराया था। महिलाओं की गरिमा और सम्मान के लिए भी इस कानून का विशेष महत्व है। गरिमा के अधिकार का यह मसला बहुत कुछ सितंबर 2005 में संप्रग सरकार द्वारा पारित कराए गए सूचना अधिकार कानून की तरह था। इसी क्रम में रोजगार का अधिकार, वन पट्टा का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, खाद्य सुरक्षा अधिकार और भूमि अधिग्रहण की स्थिति में पुनर्वास और क्षतिपूर्ति का अधिकार भी गिना जाना चाहिए। प्रधानमंत्री और उनके सहयोगियों ने संप्रग सरकार के इन कार्यक्रमों की अक्सर आलोचना की है, लेकिन हाथ से मैला सफाई की प्रथा को पूरी तरह समाप्त करने के लिए बने कानून के खराब क्रियान्वयन पर उन्हें विशेष ध्यान देना चाहिए। इतिहास में नेताओं को उनके भाषणों से नहीं, बल्कि उनके कार्य परिणामों से आंका जाएगा। 15 अगस्त को प्रधानमंत्री द्वारा उठाए गए मुद्दे नि:संदेह बहुत महत्वपूर्ण हैं और उन पर तात्कालिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है। इन समस्याओं के निदान के लिए अधिक व्यापक राजनीतिक एजेंडे पर अमल करना होगा, जिसमें केंद्र, राच्य और पंचायतें तथा नगरपालिका शामिल हैं। यह तभी संभव है जब प्रधानमंत्री खुद संबंधित पक्षों तक संपर्क करें और एक रचनात्मक भावना के साथ व्यापक सहमति कायम करें। इसके लिए जरूरी है कि प्रधानमंत्री और दूसरे राजनीतिक दलों के बीच मौलिक आमने-सामने की बातचीत हो। राष्ट्र को उनके सार्थक कदमों और सही दिशा में पहल का इंतजार है।
[लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]

गरीबी और स्त्री




महिला की सरेआम नीलामी 

Sunday,Jul 27,2014

उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले के एक गांव में महिला की सरेआम नीलामी की घटना मस्तिष्क झिंझोड़ने के साथ समूचे मानव समाज को शर्मसार कर देने वाली है। विश्वास नहीं होता, किंतु यह सच है। पचास वर्षीय एक पुरुष दस हजार रुपये में युवती को उसके पिता से खरीदता है। कुछ दिन साथ रखता है और जब उसे सूद-मुनाफे के साथ बेचने का ऐलान करता है तो खरीदारों का मजमा लग जाता है। फिर मांग और आपूर्ति के सिद्धांत के आधार पर पंद्रह हजार रुपये मुनाफे के साथ उसकी नीलामी की जाती है। क्या स्त्री उत्पाद है। कतई नहीं। फिर इस घटना को कैसे झुठलाएं। हालांकि, इसे झुठलाने की कोशिश हो रही है। राठ क्षेत्र के गांव जमखार में पुलिस और प्रशासन का अमला इसी कोशिश में जुटा है और कागज के चंद टुकड़ों के माध्यम से कारोबारी समझौते को शादी साबित कर नाक बचाने की कोशिश कर रहा है। महिला को सप्ताह भर पहले झारखंड के दुमका से खरीदकर लाया गया था। मामला खुलने के बाद पुलिस और प्रशासन खरीदारी के बाद स्टैम्प पेपर पर हुई लिखापढ़ी को अब शादी करार देने की कोशिश कर रहे हैं। चूंकि महिला ने कोई मुखर विरोध नहीं किया है इसलिए चंद दिनों में यह चर्चा शांत हो जाएगी लेकिन इसके सामाजिक और सरकारी पहलू पर बहस जरूरी है। दोनों के गर्भ में गरीबी है। जहां से यह महिला खरीदकर लायी गई उस पिछड़े इलाके में गरीबी इस कदर हावी है कि कई बार पिता बेटी की शादी नहीं कर पाता। जहां वह खरीदकर लायी गई वहां की पथरीली जमीन पर गरीबी इतनी हावी है कि वहां कोई बेटी ब्याहना नहीं चाहता। इसलिए खरीद फरोख्त कर रिश्ते बनाने का यह कारोबार चलता है। दुर्भाग्य यह है कि बुंदेलखंड को इस विडंबना से मुक्ति दिलाने के बजाय सरकारी अमला सच्चाई ढांपने में ज्यादा यकीन रखता है। इस तरह की शर्मनाक घटनाएं तभी रुक सकती हैं जब सच्चाई का सामना किया जाए और क्षेत्र से गरीबी दूर हो। गरीबी तभी दूर हो सकती है जब सरकारें इच्छाशक्ति के साथ योजनाएं बनाएं और उन पर अमल कराएं। शर्मनाक है कि सरकारें अल्पसंख्यक, गरीब तबके की कन्याओं की शादी के लिए जितना अनुदान देती हैं उतनी ही धनराशि में खरीद फरोख्त हो जाती है। बुंदेलखंड में यह सिलसिला तोड़ना होगा। डर है कि नीलामी कहीं परंपरा न बन जाए। इससे मुक्ति सामाजिक संवेदना और सरकारी संजीदगी से ही संभव है।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]
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चरम बर्बरता के दौर में औरत




दबंगई के फैसले 

 Jan 28 2014

राजनीति के अपराधीकरण से महिलाओं के खिलाफ हिंसा बढ़ी है. अपराधियों को संरक्षण देनेवाली राजनीति के इस पहलू पर देश के सभी सदनों में खुल कर चरचा होनी चाहिए. यहां दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर ही बड़ी बहस संभव है.  मुख्तारन माई-पाकिस्तान की एक कबीलाई औरत. एक आंख में उसका अक्स तो दूसरी तरफ अपने देश के पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के सुबलपुर ग्राम की एक आदिवासी युवती का.  दोनों ऐसे मुल्कों में जन्मीं, जहां देहाती क्षेत्रों में स्थानीय पंचायतें 21वीं सदी के दूसरे दशक में भी अपने बर्बर फैसलों को अमली जामा पहनाने में नहीं हिचक रही हैं. करीब 12 साल पहले पाकिस्तान की एक पंचायत ने मुख्तारन माई के साथ बलात्कार का फरमान इसलिए सुनाया था, क्योंकि उसके भाई ने अपने से ताकतवर जाति की लड़की से प्यार करने की जुर्रत की थी.  इधर, बीते 20 जनवरी को पश्चिम बंगाल में बीरभूम जिले के सुबलपुर गांव की 20 वर्षीय आदिवासी युवती द्वारा एक गैर आदिवासी लड़के से प्यार करने पर 25 हजार रुपये जुर्माना न भरने पर गांव के मुखिया ने वहां खड़े लोगों से कहा- जाओ और उसके साथ मजे करो.  पीड़िता के मुताबिक दुष्कर्म करनेवाले करीब 12 थे. इनमें पीड़िता के छोटे भाई की उम्र से लेकर पिता की उम्र तक के लोग शामिल थे. इस चरम बर्बरता को सुन रोंगटे ही खड़े नहीं होते, बल्कि सरकारी व्यवस्था, राजनीति के मौजूदा चरित्र व समाज को लेकर एक आक्रोश उठता है.  किसी देश की वृद्धि व विकास का रास्ता महिलाओं के सशक्तीकरण के लक्ष्य को नजरअंदाज नहीं कर सकता. इसके लिए महिला-सुरक्षा जरूरी है. 65वें गणतंत्र दिवस पर हुक्मरानों से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि कब तक ऐसी पंचायतें अपने वीभत्स न्याय का कहर कमजोर वर्ग और खास कर महिलाओं पर ढहाती रहेंगी.  पश्चिम बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों में ‘शलिशी अदालत’ और हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ‘खाप’ नाम से मशहूर पंचायतें आधुनिक लोकतंत्र की न्यायप्रणाली में आस्था रखने की बजाय खुद ही दबंगई से फैसले सुना देती हैं. चिंता का एक अहम पहलू ऐसी पंचायतों को मिलनेवाला राजनीतिक संरक्षण है.  इस सामूहिक बलात्कार कांड के पकड़े गये आरोपियों में से कुछेक का ताल्लुक राज्य के सत्तारूढ़ दल से है. बीरभूम जिले की ही एक शलिशी अदालत ने 2010 में इसी जुर्म में एक आदिवासी लड़की को नंगा करके दस किलोमीटर तक घुमाया था. बीते कई दशकों से वहां जो चल रहा है, सूबे के हुक्मरान उससे नावाकिफ होंगे, इस पर यकीन न करने के कई साक्ष्य मौजूद हैं. इन पंचायतों में मौत की सजा तक सुना दी जाती है और वहां इकट्ठा होनेवाले हुजूम को चुप रहने की कसम खिलायी जाती है.  इसमें कोई दो मत नहीं कि शलिशी अदालतों का इस्तेमाल अकसर राजनीतिक बदला लेने के लिए भी किया जाता है. वाम शासन के वक्त भी शलिशी अदालतों नें महिलाओं और कमजोर वर्ग को अपना निशाना बनाया था.  2004 में वाम सरकार ने शलिशी अदालतों की गैर कानूनी प्रणाली को कानून के दायरे में लाने के लिए एक बिल भी तैयार किया था, मगर कांग्रेस और तृणमूल ने इसके राजनीतिक विरोध के लिए मुहिम छेड़ दी और तत्कालीन राज्य सरकार ने ऐसे हालात के मद्देनजर विधानसभा में बिल पेश नहीं किया.  तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस ने वाम मोरचा सरकार के इस कदम का विरोध इसलिए किया, क्योंकि उनका मानना था कि इस बिल की आड़ में वामपंथी पार्टी, खासकर सीपीएम, ब्लॉक स्तर के बोर्ड में अपनी ही विचारधारा के लोगों को भर देगी और इससे गांवों में उसकी राजनीतिक पकड़ मजबूत हो जायेगी. नफा-नुकसान की राजनीति का एक दुष्परिणाम महिलाओं को लोकतंत्र और मानवाधिकारों के युग में किस तरह सहना पड़ता है, इसका ताजा उदाहरण 20 जनवरी की घटना है. रस्सियों से बांध कर उसको बांसों के स्टेज पर लिटा दिया गया, ताकि सामूहिक दुष्कर्म को पूरा गांव देखे.  राजनीति के अपराधीकरण से महिलाओं के खिलाफ हिंसा बढ़ी है. अपराधियों को संरक्षण देनेवाली राजनीति के इस पहलू पर देश की विधानसभाओं और संसद में खुल कर चरचा होनी चाहिए. यहां दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर ही बड़ी बहस की गुंजाइश है. हाल ही में शिवसेना अध्यक्ष ने अपने मुखपत्र ‘सामना’ के संपादकीय में लिखा कि ‘केजरीवाल के बजाय राखी सावंत बेहतर सरकार चला सकती है.  केजरीवाल और उनकी ‘आप’ सबसे बदनाम आइटम गर्ल बन गयी हैं.’ इस तुलना में औरत की बाजार द्वारा गढ़ी गयी छवि का प्रयोग एक राजनेता द्वारा किया गया है. चुनाव के दौरान विभिन्न राजनीतिक दल महिला उम्मीदवारों के लिए जिस अमर्यादित भाषा का प्रयोग करते हैं, उससे हम सभी वाकिफ हैं. बड़े नेताओं को इस बात का एहसास होना चाहिए कि अगर वे खुद ही महिलाओं को बराबरी वाले दरजे से नहीं देखेंगे, तो निचले क्रम वाले कैसे देखेंगे? सुबलपुर देहाती क्षेत्र की यह नितांत अमानवीय घटना इस बात की भी तस्दीक करती है कि बर्बर पंचायतों पर कानूनी नकेल कसना कितना जरूरी है.

महिला उत्पीड़न




वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर से

 पीड़िताओं को राहत

नवभारत टाइम्स | Jul 23, 2014

रश्मि गुप्ता
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों को देखकर लगता है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध में बढ़ोतरी हो रही है। पर इससे यह भी जाहिर होता है कि मामले अब दर्ज होने लगे हैं। औरतें अब चुप नहीं रहतीं। वे जुल्म का विरोध करती हैं, उनकी शिकायत करती हैं। गौरतलब है कि साल 2013 में महिलाओं के साथ हिंसा के देश भर में 309546 मामले दर्ज किये गए, जबकि 2012 में यह आंकड़ा 244270 था। और यदि राजधानी दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ हुई हिंसा के मामलों पर नजर डालें तो वर्ष 2012 में जहां 5959 मामले दर्ज हुए , वहीं 2013 में यह संख्या दोगुनी से भी अधिक बढ़कर 12888 पर पहुंच गई। दरअसल निर्भया कांड के बाद यह परिवर्तन जरूर आया है कि थाने मामला दर्ज करने से आसानी से इनकार नहीं कर पाते। महिलाओं के खिलाफ हुए अपराध में सजा की दर को देखें तो 2012 में जहां यह 21.3 फीसदी थी, वहीं 2013 में बढ़कर यह 22.4 हो गई। इसका अर्थ यह है कि महिला हिंसा के मामलों में एक चौथाई से भी कम लोगों को सजा हुई । निर्भया कांड के बाद जस्टिस वर्मा कमेटी ने कुछ कारगर सुझाव दिए थे, जिनमें एक प्रमुख सुझाव वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर खोलने का भी था। मध्य प्रदेश में हाल ही में राज्य सरकार के लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने एक स्वयंसेवी संगठन के साथ साझा अभियान के रूप में पहला वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर भोपाल के एक सरकारी अस्पताल में खोला। पिछले एक महीने में फोन करके डेढ़ हजार से अधिक महिलाओं ने इस सेंटर से संपर्क किया और अपनी समस्याएं बताईं जिनमें घरेलू हिंसा, बलात्कार, दहेज और साइबर अपराध के मामले अधिक थे। अच्छी बात यह है कि अधिकतर मामलों में प्रारंभिक परामर्श के बाद पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर मामलों की छानबीन शुरू कर दी। साथ ही वकीलों की एक टीम भी इस सेंटर पर महिलाओं की कानूनी मदद कर रही है। इस बार के आम बजट में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के सभी सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों में महिलाओं के लिए क्राइसिस मैनेजमेंट सेंटर खोलने की घोषणा की गई है। ये सेंटर महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अंतर्गत कार्य करेंगे। ऐसे सेंटर और जगहों पर भी खुलने चाहिए। वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर या क्राइसिस मैनजमेंट सेंटर के पीछे मकसद यह है कि हिंसा की शिकार महिला को न्याय के लिए दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर न होना पड़े। उसे एक ही स्थान पर पुलिस सहायता, मेडिकल परीक्षण एवं उपचार, परामर्श व कानूनी मदद मिल सके। हिंसा की शिकार महिलाओं को सबसे ज्यादा मुश्किल थाने में जाकर एफआईआर दर्ज करवाने में आती है। मध्य प्रदेश में एक स्वयंसेवी संगठन ने बलात्कार की शिकार 58 महिलाओं से बातचीत कर एक अध्ययन प्रकाशित किया था। इसमें लगभग तीन चौथाई महिलाओं ने कहा कि एफआईआर दर्ज करवाने में उन्हें एक सप्ताह से 15 दिन का समय लगा। अधिकतर मामलों में पुलिस ने जानबूझकर केस दर्ज ही नहीं किया। पर बुनियादी सवाल है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा में लगातार बढ़ोतरी हो क्यों रही है? क्या ऐसे सेंटरों के भरोसे हम मानने लगेंगे कि अब महिलाएं और लड़कियां महफूज हैं? वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर की जरूरत तो हादसे के बाद पड़ती है। लेकिन हादसा हो ही क्यों? क्या पुरुषवादी सोच हिंसा को अपने शक्ति प्रदर्शन का सबसे बेहतर जरिया समझती है? आज जरूरी है कि कानून तेजी से अपना काम करे ताकि अपराधियों में खौफ पैदा हो सके। पर आंकड़े यह भी बताते हैं कि महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा के अधिकतर मामले उनके अपने घरों या परिवारों से ताल्लुक रखते हैं। मतलब महिलाएं या बच्चियां अपने घर के भीतर भी सुरक्षित नहीं हैं। इसके लिए जरूरी है कि हम परिवारों का माहौल बदलें। पहले तो लड़के-लड़कियों में भेद खत्म हो। फिर लड़कों में स्त्री के प्रति सम्मान का भाव पैदा किया जाए। समाज को संबंधों के मामले में भी जनतांत्रिक बनाना होगा। 

यौन अपराध का ताना-बाना

अनंत विजय

जनसत्ता 25 जुलाई, 2014 : पिछले दिनों दो ऐसी खबरें आर्इं, जो किसी भी सभ्य समाज के मुंह पर तमाचे की तरह हैं। पहली खबर थी बंगलुरु के एक स्कूल में छह साल की मासूम के साथ वहीं के दो कर्मचारियों द्वारा बलात्कार की। दूसरी खबर बलात्कार की कोशिश और कत्ल की है। यह वारदात लखनऊ के पास मोहनलालगंज में हुई, जहां दो बच्चों की मां के साथ बलात्कार की कोशिश की गई और नाकाम रहने पर वहशियाना तरीके से पीट-पीट कर उसकी हत्या करने के बाद एक स्कूल के पास बगैर कपड़ों के फेंक दिया गया। एक शख्स ने इस महिला के साथ दरिंदगी की सारी हदें पार कर दीं। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से जो सच सामने आया वह दिल दहलाने वाला है। आरोपी ने महिला के गुप्तांग समेत पूरे शरीर पर गहरे जख्म किए। पुलिस के मुताबिक जिस अस्पताल में महिला काम करती थी उसके पास की इमारत के गार्ड ने इस वारदात को अंजाम दिया। इन दोनों खबरों का सरोकार देश के हर सूबे से है। हर घर से है। हर माता-पिता से है। बंगलुरु में छह साल की मासूम बच्ची के साथ स्कूल में बलात्कार की खबर  सामने आने के बाद वहां के अभिभावकों में यह चिंता बढ़ गई है कि पता नहीं स्कूल के वे कर्मचारी कब से और कितनी बच्चियों का यौन शोषण या फिर छेड़छाड़ कर रहे थे। क्या कुछ अन्य अभिभावकों को अपनी बच्चियों के साथ छेड़छाड़ की नापाक हरकतों की जानकारी थी और वे बदनामी के डर से मामले को छोटा मान कर भुला चुके थे! स्कूलों में बच्चों के साथ यौन शोषण के मामलों में अक्सर यह देखने में आता है कि जब माता-पिता शिकायत लेकर जाते भी हैं तो स्कूल प्रशासन जांच की बात कह कर मामले को दबा देता है। परोक्ष रूप से अभिभावकों को भी स्कूल का नाम खराब होने की दुहाई या धमकी देकर मुंह बंद रखने की हिदायत दी जाती है। बच्चों के खिलाफ यौन शोषण को रोकने के लिए लागू हुए प्रोटेक्शन आॅफ चाइल्ड अगेंस्ट सेक्सुअल अफेंस एक्ट (पॉक्सो) में आरोपियों को बचाने वालों या मामले को दबाने की कोशिश करने या फिर मामले बिगाड़ने वालों के लिए महज छह महीने की सजा का प्रावधान है, लेकिन स्कूल या संस्थान के खिलाफ किसी कार्रवाई का प्रावधान नहीं है। इस वजह से स्कूल प्रशासन ज्यादातर ऐसे मामलों को आपसी समझौतों से दबा देने की कोशिश करता है। समान्यतया अभिभावक भी बच्चों को स्कूल में आगे दिक्कत न हो, यह सोच कर हालात से समझौता कर लेते हैं। इसी समझौते से अपराधियों को ताकत मिलती है। उन्हें लगता है कि स्कूल परिसर में अपराध करने से प्रशासन उसको दबाने में जुट जाएगा। लिहाजा वे इस तरह के अपराध के लिए स्कूल के कोने-अंतरे को ही चुनते हैं। बंगलुरु के स्कूल में हुई वारदात में इस बात की भी पड़ताल होनी चाहिए कि क्या वहां बच्चियों के यौन शोषण या छेड़छाड़ की कोई शिकायत पहले आई थी और स्कूल प्रशासन ने कार्रवाई नहीं की थी। अगर ऐसी बात सामने आती है तो स्कूल के कर्ताधर्ताओं के खिलाफ भी पॉक्सो की धाराओं में मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए। इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि आरोपी ने स्कूल में बच्ची के साथ बलात्कार किया तो स्कूल प्रशासन को इस बात की भनक लगी थी या नहीं और उसकी क्या भूमिका थी। स्कूलों में बच्चों के यौन शोषण की वारदात को अंजाम देने वाले अपराधी दरअसल यौन कुंठा के शिकार होते हैं और मानसिक रूप से विकृत भी। मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक ऐसे अपराधी यौन आनंद के लिए बच्चों को अपना शिकार बनाते हैं। यह एक ऐसी मानसिकता है, जो अपराधी को वारदात अंजाम देने के बाद एक खास किस्म का रोमांच देती है। इस तरह के अपराधी, आम अपराधियों से ज्यादा शातिर होते हैं। उन्हें इस बात का अंदाजा होता है कि स्कूल उसके अपराध को तूल नहीं देगा। लिहाजा वे अपराध को स्कूल परिसर में अंजाम देने से नहीं हिचकते। चंद महीने पहले दक्षिणी दिल्ली के एक स्कूल के स्टाफरूम में कई बच्चियों के यौन शोषण की खबर आई थी। दिल्ली में ही एक कैब ड्राइवर महीनों तक एक बच्ची का यौन शोषण करता रहा था। सवाल यह है कि स्कूल की क्या जिम्मेदारी है। क्या कोई भी स्कूल यह कह कर पल्ला झाड़ सकता है कि अमुक शख्स ने वारदात को अंजाम दिया इसलिए कानून के हिसाब से उसको सजा मिलेगी। स्कूल की यह जिम्मेदारी भी है कि उसके परिसर में या फिर स्कूल आने और जाने के वक्त बस में बच्चे सुरक्षित रहें। बच्चों की समय-समय पर काउंसलिंग भी होनी चाहिए, ताकि उनके खिलाफ हो रहे इस तरह के अपराध उजागर हो सकें। बच्चों को इस तरह के अपराध के बारे में जागरूक करने के लिए स्कूल के साथ-साथ अभिभावकों को भी जिम्मेदारी लेनी होगी। अभिभावकों को तो अपराध के बाद साहस के साथ सामने आना होगा। इस तरह के अपराध को रोकने के लिए कानून से ज्यादा जरूरी है जागरूकता। स्कूलों में एक नियमित अंतराल पर शिक्षकों के लिए भी काउंसलिंग की व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि वे जागरूक हो सकें। कानून का भय और समाज में जागरूकता बढ़ा कर ही बच्चों के साथ यौन शोषण जैसे घिनौने कृत्य रोके जा सकते हैं। इस काम में देश के हर नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह अपनी भूमिका निभाए। अगर हम ऐसा नहीं कर पाए तो देश के भविष्य को बेहतर नहीं बना सकते हैं। बच्चों को देश में सुरक्षित माहौल देना हमारा दायित्व ही नहीं कर्तव्य भी है। मलेशियाई विमान हादसे में करीब तीन सौ लोगों के मारे जाने की खबर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मचे कोलाहल और शोरगुल के बीच दो दिनों तक राष्ट्रीय मीडिया इन दो खबरों को उस आवेग से नहीं उठा पाया, जिसकी ये हकदार हैं। देर से ही सही, मीडिया ने इस ओर ध्यान दिया। लखनऊ का हत्याकांड दिल्ली के निर्भया कांड जैसा ही जघन्य है। दिल्ली में निर्भया बलात्कार के वक्त इस घिनौनी वारदात के खिलाफ माहौल बनाने में मीडिया ने अहम भूमिका निभाई थी और लगातार कवरेज की वजह से सरकार बलात्कार के खिलाफ कड़े कानून बनाने को मजबूर हुई थी। सोनिया गांधी से लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक को सामने आकर बयान देना पड़ा था। बलात्कारियों को सख्त से सख्त सजा के लिए न्यायमूर्ति जेएस वर्मा के सुझावों पर कानून में बदलाव किए गए थे, पर चिंता का सबब तो कड़े कानून के बावजूद ऐसे अपराधों पर अंकुश नहीं लग पाना भी है। दरअसल, अगर गहराई में विचार करें तो बलात्कार हमारे समाज का एक ऐसा नासूर है, जिसका इलाज कड़े कानून के अलावा हमारे रहनुमाओं की इससे निबटने की प्रबल इच्छाशक्ति का होना भी है। बलात्कार से निबटने के लिए समाज के रहनुमाओं की इच्छाशक्ति तो दूर की बात है, जरा महिलाओं को लेकर उनके विचार देखिए। शिया धर्म गुरु कल्बे जव्वाद कहते हैं- लीडर बनना औरतों का काम नहीं है, उनका काम लीडर पैदा करना है। कुदरत ने, अल्लाह ने उन्हें इसलिए बनाया है कि वे घर संभालें और अच्छी नस्ल के बच्चे पैदा करें। राम जन्मभूमि न्यास के महंथ नृत्यगोपाल दास की बात सुनिए: महिलाओं को अकेले मठ, मंदिर और देवालय में नहीं जाना चाहिए। अगर वे मंदिर, मठ या देवालय जाती हैं तो उन्हें पति, पुत्र या भाई के साथ ही जाना चाहिए, नहीं तो उनकी सुरक्षा को खतरा है। अब जरा महिलाओं को लेकर राजनेताओं के विचार जान लेते हैं। लंबे समय तक गोवा के मुख्यमंत्री रह चुके कांग्रेस नेता दिगंबर कामत ने कहा था: महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए, क्योंकि इससे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। राजनीति महिलाओं को क्रेजी बना देती है। समाज के बदलाव में महिलाओं की महती भूमिका है और उन्हें आने वाली पीढ़ी का ध्यान रखना चाहिए। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव का बयान: अगर संसद में महिलाओं को आरक्षण मिला और वे संसद में आर्इं तो वहां सीटियां बजेंगी। पूर्व कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने तो सारी हदें तोड़ते हुए कहा था कि: बीवी जब पुरानी हो जाती है तो मजा नहीं देती है। इन बयानों को देख कर ऐसा लगता है कि महिलाओं के प्रति हमारे समाज का सोच धर्म, जाति, संप्रदाय से ऊपर उठ कर तकरीबन एक है और यही सोच महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध की जड़ में है। धर्मगुरुओं और नेताओं के इस तरह के बयानों से समाज के कम जागरूक लोगों में यह बात घर कर जाती है कि महिलाएं तो मजा देने के लिए हैं या मजे की वस्तु हैं। इस तरह के कुत्सित विचार जब मन में बढ़ते हैं तो वे महिलाओं के प्रति अपराध की ओर प्रवृत्त होते हैं। उन्हें इस बात से बल मिलता है कि उनके नेता या गुरु तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा देते ही नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय भी समय-समय पर बलात्कार के खिलाफ चिंता जता चुका है। कुछ वक्त पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने यह जानना चाहा था कि क्या समाज और व्यवस्था में कोई खामी आ गई है या सामाजिक मूल्यों में गिरावट आती जा रही है या पर्याप्त कानून नहीं होने की वजह से ऐसा हो रहा है या फिर कानून को लागू करने वाले इसे ठीक से लागू नहीं कर पा रहे हैं। कानून लागू करने वालों की बलात्कार को लेकर क्या राय है, वह मुलायम सिंह यादव बता चुके हैं। मुलायम सिंह यादव ने बलात्कार के बारे में बहुत ही लापरवाह तरीके से कहा कि लड़कों से गलतियां हो जाती हैं। उत्तर प्रदेश में जिस पार्टी की सरकार हो और उसके मुखिया कहें कि लड़कों से गलतियां हो जाती हैं तो फिर तो इस तरह की ‘गलतियों’ को पुलिस भी उसी आलोक में देखेगी और तफ्तीश करेगी। बलात्कार के खिलाफ कानून लागू करने वालों के बारे में सर्वोच्च न्यायालय का सवाल उचित है। इसके बारे में पूरे समाज को गंभीरता से विचार करना होगा। समाज के हर तबके के लोगों को बलात्कार के इस नासूर के खिलाफ एक जंग छेड़नी होगी, ताकि हमारी बेटियां और बहनें महफूज रह सकें। राजनीतिक बिरादरी को संवेदनशीलता दिखाते हुए इस बारे में आगे आकर पहल करनी होगी।

महिला सुरक्षा 

 Tue, 31 Dec 2013

महिला सुरक्षा के तमाम दावों व उपायों के बावजूद इस दिशा में बेहतर परिणाम सामने न आना चिंताजनक है। महिलाएं अब भी सुरक्षित नहीं हैं, न घर में और न ही बाहर। विकृत प्रवृत्ति के कुछ लोगों के कारण समाज के हर वर्ग को लगातार शर्मसार होना पड़ रहा है। दुखद यह है कि बच्चियां भी सुरक्षित नहीं हैं। इन वारदातों के पीछे अपनों का हाथ होने से मामले और संगीन बन जाते हैं। चंबा जिले में सात साल की उस मासूम बच्ची के साथ हुआ दु‌र्व्यवहार शर्मिदा करता है। ऐसा ही दर्द शिमला जिले के मतियाणा में नाबालिग छात्रा को सहपाठी ने दिया है। कुल्लू जिले में एक विवाहिता को पिता के हाथों दुष्कर्म का शिकार होना पड़ा। मामले और भी हैं, जिनकी गिनती नहीं की जा सकती। दुष्कर्म, छेड़छाड़ व उत्पीड़न ऐसे मामलों का लगातार सामने आना साबित करता है कि समाज में अभी भी एक वर्ग ऐसा है, जो महिला को सिर्फ भोग की वस्तु समझता है। उसके लिए महिलाओं का सम्मान, उनकी आजादी और अपेक्षाओं की कोई कद्र नहीं है। ऐसे लोगों को समझना होगा कि नारी केवल भोग की वस्तु नहीं बल्कि उसकी भी एक पहचान है, जिसे मिटाया नहीं जा सकता। आज हर क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर सफलता के सोपान चढ़ रही हैं। उनकी हस्ती को न नकारा जा सकता है और न ही मिटाया जा सकता है। शास्त्रों में भी जब नारी को देवी का दर्जा दिया गया है तो आचरण में उसे अपनाने में हिचक नहीं होनी चाहिए। दिल्ली दुष्कर्म मामले के बाद लागू हुए कड़े कानून का असर ऐसी प्रवृत्ति वाले लोगों पर नहीं हुआ है और निरंतर ऐसी वारदातें सामने आ रही हैं। हालांकि इस दौरान ऊना व मंडी जिलों में दुष्कर्मियों को कड़ी सजा देकर त्वरित न्याय दिलाया गया। सुंदरनगर में भी लड़की का पीछा करने पर केस दर्ज किया गया। लेकिन यह रोशनी की किरण अभी अधूरी है। इस दिशा में अभी भी काफी कुछ किया जाना शेष है और इसकी पहल महिलाओं को ही करनी होगी। घर हो या बाहर किसी भी प्रकार के उत्पीड़न के खिलाफ उन्हें आवाज बुलंद करनी होगी। चाहे वह कोई अपना हो या कोई दूसरा। उत्पीड़न के लिए दूसरों को दोष देने या उस दर्द को सहने से अच्छा है कि ऐसे लोगों को करारा जवाब दिया जाए, ताकि वे अपनी हरकतों से बाज आ सकें।

सराहनीय प्रयास
    Thu, 06 Feb 2014

महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों और छेड़छाड़ की घटनाओं को रोकना एक बड़ी चुनौती बन चुकी है। अपना राज्य भी इस मानसिक विकृति से दो-चार हो रहा है। आए दिनों ऐसी घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है, जो चिंताजनक है। वैसे तो महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है, लेकिन घर से बाहर छेड़छाड़ और वारदात की शिकार वे ज्यादा हो रही हैं। भीड़भाड़ वाले इलाकों और सार्वजनिक वाहनों में ऐसी घटनाएं अक्सर होती है। इसे रोकने के लिए कड़े कानूनी प्रावधान हैं। इसके अलावा सामाजिक स्तर पर ऐसे प्रयास हो रहे हैं, ताकि महिलाएं भयमुक्त वातावरण में रह सकें। राजधानी में गुलाबी ऑटो का परिचालन इस दिशा में एक छोटा किंतु सकारात्मक प्रयास कहा जा सकता है। इस ऑटो की खासियत यह होगी कि इसका परिचालन महिला चालक करेंगी और इसमें सिर्फ महिलाओं को ही बैठने की इजाजत मिलेगी। महानगरों में ऐसे प्रयोग होते रहे हैं, लेकिन रांची में इसे पहली बार आजमाया जा रहा है। चूंकि गुलाबी ऑटो का परिचालन महिलाएं करेगी, इसलिए इसमें यात्रा महिलाओं के लिए ज्यादा सुरक्षित होगी। हालांकि जनसंख्या के लिहाज से फिलहाल ऐसे ऑटो की संख्या नगण्य ही कही जाएगी, लेकिन शुरुआत हुई है तो इसकी संख्या में बढ़ोतरी भी होगी। हाल के दिनों में पुलिस की ओर से महिलाओं को भयमुक्त बनाने के कई प्रयास हुए हैं, जिसकी एक कड़ी में गुलाबी ऑटो भी है। इससे पूर्व नगर निगम ने महिलाओं के लिए विशेष बस की भी व्यवस्था कर रखी है, जो महत्वपूर्ण मार्गो पर चलती है। पुलिस ने ऐसे हेल्पलाइन नंबर भी जारी किए हैं, जिनपर आपात स्थिति में महिलाएं संपर्क कर सकती हैं। इसके अलावा भीड़भाड़ वाले इलाकों में स्पेशल पुलिस पेट्रोलिंग पार्टी भी ऐसे तत्वों पर निगाह रखती हैं।  जागरूकता बढ़ने से ऐसी घटनाओं में बेशक कमी आएगी, लेकिन हमें सामाजिक मोर्चे पर भी इससे जूझना होगा। राज्य के अन्य शहरों एवं इलाकों में भी कामकाजी और अध्ययनरत महिलाओं के खिलाफ अपराध की शिकायतें बढ़ी हैं। वहां भी सार्वजनिक यातायात का सुगम माध्यम महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखकर बनाना होगा। इसके लिए संस्थागत प्रयास बेहद जरूरी है। ऐसी घटनाएं सीधे तौर पर विधि-व्यवस्था को प्रभावित करती हैं। ऐसे तत्वों से भी कड़ाई से निपटना होगा, जो सरेआम ऐसी हरकत करने का दुस्साहस करते हैं। हाल के दिनों में इस प्रकार की घटनाओं का स्पीडी ट्रायल और दोषियों को कड़ा दंड दिलाना भी सकारात्मक संकेत है। महिलाओं के प्रति अपराध सभ्य समाज की परिकल्पना पर धब्बे सरीखा है और इसे दूर करने का हर उपाय सराहनीय है।

समाज और सरकार

Thursday,Jul 24,2014

सरकारों, नेताओं और सिस्टम को गलत कहना सबसे आसान है। अपनी हर समस्या के लिए इन्हीं तीन को जिम्मेदार ठहराते हुए लोग यह भूल जाते हैं कि समाज की बेहतरी में उनका भी कोई दायित्व बनता है। हम यह समझना ही नहीं चाहते कि सड़क, पानी, बिजली और इन जैसे जिन संसाधनों का हम उपयोग करते हैं, वे इस देश के हैं और इस नाते हमारा कोई कर्तव्य भी है। कानपुर में जिस तरह एक महिला को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया, उसके लिए कौन सी सरकार दोषी है। सरकार भी तो व्यक्तियों का समूह ही है। समाज से ही तो आते हैं सरकार के नुमाइंदे। किस किताब और किस पाठयक्रम में स्त्रियों के अपमान के लिए कहा गया है। अपना आचरण तो समाज को ही निश्चित करना होगा। कानपुर में महिला के साथ अपमानजनक व्यवहार समाज ने ही तो किया। किसी प्रकरण में उस महिला का अपराध कानून तय करेगा लेकिन उसके बहुत पहले मोहल्ले वाले ही उसे सजा देने लगें तो यह तो मध्ययुग में वापसी हुई। यह खेदजनक है और चिंताजनक भी। किसी स्त्री को सड़क पर घसीटना, उसके कपड़े उतारने की कोशिश निंदनीय है। इसके बाद आती है पुलिस की भूमिका। यह वह बिंदु है जहां हम सरकार और उसके राज की व्याख्या कर सकते हैं। खाकी वर्दी केसामने एक महिला बेपर्दा की जा रही थी और पुलिस वाले शांत दर्शक थे। किसी से यह नहीं हुआ कि बढ़कर लड़की पर एक कपड़ा डाल देते। उसे इसी अवस्था में पैदल चलाकर थाने ले जाया गया। अफसोस कि वहां महिला पुलिस भी थी। जिन्होंने यह कृत्य किया, जिन्होंने यह होने दिया और जिन्होंने अपनी आंख के सामने उस अर्धनग्न स्त्री को पैदल परेड करते देखा, वे सब समाज के अपराधी हैं। बेशक, इस दुराचरण में सरकार की गलती नहीं पर उसे वेतन भोगी पुलिस वालों से उनकी असभ्यता का हिसाब अवश्य लेना चाहिए। केवल एक सप्ताह पहले लखनऊ के मोहनलालगंज में भी पुलिस ने निर्वस्त्र मृतका की फोटो अपने सामने उतरवायी थीं और कानपुर में भी उसने लगभग वही काम किया। राज्य सरकार यदि ईमानदारी से काम करना चाहती है तो उसे सबसे पहले अपने उन अधिकारियों-कर्मचारियों के लिए सद् आचरण सिखाने की वर्कशाप करनी चाहिए जिनका जनता से सीधा वास्ता पड़ता है। शुरुआत पुलिस, शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग से की जानी चाहिए।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]
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सम्मान और सुरक्षा

Fri, 12 Sep 2014

महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा की रक्षा के उद्देश्य से प्रत्येक जिले में नए केंद्र खोलने का प्रस्ताव किया गया है। लगता है कि जनदबाव में ही सही, पुलिस महकमा और शासन के अफसर महिला अपराधों के प्रति धीरे-धीरे संवेदनशील हो रहे हैं। महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराध लंबे समय से बड़ी चिंता का विषय रहे हैं, लेकिन दिल्ली के निर्भया कांड के बाद देश भर में महिलाओं की सुरक्षा के लिए ठोस उपाय करने का गहरा जनदबाव रहा है। इसी का परिणाम था कि संसद को कानून में बदलाव के लिए बैठक बुलानी पड़ी और कई दूरगामी परिवर्तन किए गए। निर्भया फंड बना। कई अन्य उपाय भी किए गए। केंद्र की सहायता से निर्भया फंड बनने के दो साल बाद अब प्रदेश सरकार ने हर जिले में निर्भया केंद्र बनाने का फैसला किया है। निर्भया केंद्र के माध्यम से पीड़ित महिला को त्वरित सहायता के लिए वॉयस लॉगर के साथ टोल फ्री हेल्पलाइन, चिकित्सीय सहायता, तहरीर लिखकर एफआइआर दर्ज कराने में सहायता, विपरीत मानसिक और समाजिक परिस्थितियों से निपटने में मदद के साथ पंजीकृत वकीलों के पैनल से कानूनी सहायता दिलाने की मंशा है। उम्मीद है कि अगले सप्ताह में इस पर कोई ठोस उपलब्धि सामने आ सकती है। इन केंद्रों का मकसद दुष्कर्म, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं की मदद करना है। निर्भया केंद्र की ही तरह महिलाओं के लिए एक और योजना भी जल्द जमीन पर उतरने वाली है। छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न की घटनाओं की रोकथाम और ऐसी स्थिति का शिकार होने पर उन्हें त्वरित न्याय दिलाने के मकसद से हर जिले में 'महिला सम्मान प्रकोष्ठ' खोले जाने हैं। पुलिस महानिदेशक ने इस आशय का परिपत्र जारी किया है। इन प्रकोष्ठों में सीधे महिलाओं द्वारा महिलाओं की शिकायतों को सुनकर उनका निस्तारण किया जाएगा। ये कुछ ऐसे उपाय हैं जो महिलाओं को हौसला देने वाले हैं। लेकिन, इतने भर से काम चलने वाला नहीं है। पुलिस की छवि और कार्यप्रणाली बदलने की भी जरूरत है। यदि राजधानी की ही बात करें तो यहां कई वर्षो से महिला थाना बना है, लेकिन उससे कोई बहुत फर्क पड़ा हो ऐसा सुनने में नहीं आया। महिलाओं के लिए 1090 हेल्पलाइन बनी है। इसका प्रचार तो बहुत है, उपलब्धियां भी दिखती हैं, लेकिन नकारात्मक शिकायतें भी आती हैं। यदि यह सभी इकाइयां अलग-अलग काम करने के बजाए किसी एक छत के नीचे, एक कमांड में काम कर सकें तो ज्यादा सुविधाजनक होगा।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]
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स्त्री सशक्तीकरण की शर्तें

Monday, 16 June 2014

विकास नारायण राय

 जनसत्ता 16 जून, 2014 : बलात्कार और हत्या पर राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए बदायूं के कटरा सादतगंज गांव में पहुंचने वाले राजनीतिकों को उपेक्षा से नहीं लेना चाहिए। न इस जमात के दूर से ऊलजलूल अर्द्ध-सत्य बोलने वालों को। दरअसल, इन सतही कवायदों में स्त्री-सशक्तीकरण के पैरोकारों के लिए एक निहित संदेश है- स्त्री-विरुद्ध हिंसा के मसलों पर समग्र राजनीतिक एजेंडे की सख्त जरूरत है। मीडिया, एनजीओ और कानून के दम पर यह मुहिम एक सीमा से आगे नहीं जा पा रही। मर्द और औरत के असमान संबंधों को राजनीति के विषम शक्ति-संबंधों के समांतर भी रख कर देखना होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में बदायूं जैसे कांडों को जैसे महिला शौचालयों का अभाव संभव करता है, उससे कहीं बढ़ कर दबंगई को शह देने वाला राजनीतिक वातावरण भी। सीनाजोर यौनहिंसा न बदायूं तक सीमित है न उत्तर प्रदेश तक। न गावों तक और न किसी पार्टी-विशेष के शासन तक। लिहाजा, बजाय इसे महज कानूनी या प्रशासनिक सवालों में बांधे रहने के, इसके राजनीतिक एजेंडे पर भी बात होनी चाहिए- क्या स्त्रियों के प्रति संवेदनशील पुलिस, राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर है? क्या महिलाओं के लिए सुरक्षित शौचालय का मुद््दा राजनीतिक दलों की चुनावी प्राथमिकताओं में शामिल है? औपनिवेशिक तेवर से चलाई जा रही कानूनी और न्यायिक व्यवस्था के लोकतांत्रिकीकरण को लेकर उनकी राजनीतिक समझ क्या है? विधायिका में महिला आरक्षण को राजनीतिक दल कब तक अमली जामा पहना पाएंगे? स्थानीय निकायों में आरक्षित सीटों पर चुनी गई महिलाओं का राजनीतिक स्पेस उनके पतियों ने कैसे हथिया रखा है? समाज में अराजक यौन-विस्फोट की चुनौती के सामने यौन-शिक्षा का परिदृश्य नदारद क्यों है? इस बीच, बदायूं-दरिंदगी के क्रम में घोषित उत्तर प्रदेश सरकार का पांच लाख रुपए का मुआवजा, शिकार बहनों के लिए ‘न्याय’ का हिस्सा नहीं बना है। सरकारों के लिए पीड़ित पक्ष को आर्थिक मदद देना आसान होता है, पर न्याय करने में उन्हें समूची राजनीतिक सामाजिकता को शीशे में उतारना पड़ता है। मुआवजा एक सामान्य प्रशासनिक कदम है, जबकि ‘न्याय’ के दायरे में तो सत्ता-राजनीति की अग्नि-परीक्षा भी होगी। इसी समीकरण के चलते बदायूं में न प्रदेश सरकार का कोई समाजवादी मंत्री तुरंत पहुंचा और न केंद्र सरकार का कोई भाजपाई मंत्री। जो अन्य राजनीतिक वहां पहुंचे, उन्होंने भी स्वयं को ‘जंगल राज’ को कोसने और अपराधियों को कठोर दंड देने के कानूनी एजेंडे तक सीमित रखा। स्पष्ट है कि मर्दवादी सामाजिकता की खुराक पर पलने वाले नेताओं की दिलचस्पी स्त्री-सशक्तीकरण के राजनीतिक एजेंडे में नहीं होने जा रही।  बदायूं कांड ने अखिलेश सरकार के अक्षम प्रशासन को ही नहीं, उसकी लंपट राजनीति को भी बेपर्द किया है। इसे तार्किक परिणति तक ले जाने के लिए जनता को अगले चुनाव का इंतजार रहेगा। पर पुलिसिया मिलीभगत और न्यायिक निष्क्रियता के ऐसे मामलों में, मुआवजे के अलावा, कानून-व्यवस्था बेहतर करने के नाम पर प्रशासनिक फेरबदल, निष्पक्षता के नाम पर सीबीआइ जांच और जवाबदेही के नाम पर दोषियों, पुलिसकर्मियों को कठोरतम दंड सुनिश्चित करने के सिवा और क्या किया जा सकता है? स्पष्ट है कि पैसे और प्रभाव के दम पर की जाने वाली यौनिक सीनाजोरियां, आज के मीडिया युग में, किसी भी शासन की साख के ग्राफ को राजनीतिक रसातल में पहुंचा सकती हैं। यह भी स्पष्ट है कि कानून और न्याय की प्रणालियों का लोकतांत्रिकीकरण और उनमें कार्यरत कर्मियों की स्त्री-संवेदी उपस्थिति वे अनिवार्य पूर्वशर्तें होंगी जिनसे लैंगिक न्याय की राजनीति में लोकतांत्रिक संतुलन मजबूत होगा। स्त्री की सुरक्षा का सवाल उतना ही पुराना है जितना उसकी पुरुष-निर्भरता का इतिहास। सुरक्षा के नाम पर उसके लिए नैतिक और धार्मिक ‘कवच’ कम नहीं हैं; साथ ही पारिवारिक, सामाजिक, कानूनी और प्रशासनिक एजेंडों की भी भरमार है। पर ‘निर्भया’ या ‘बदायूं’ जैसी सामूहिक बलात्कार और हत्या की दरिंदगी का विस्फोट समय-समय पर याद दिलाते रहने के लिए पर्याप्त है कि ये एजेंडे यथास्थिति का तोड़ नहीं दे पाए हैं। दरअसल, इन लैंगिक नृशंसताओं को संभव करने की राजनीति की टक्कर का प्रति-एजेंडा दे सकने वाली राजनीतिक जमीन को तोड़ने का वक्त अभी आना है। इस हद तक, स्त्री-विरुद्ध हिंसा के राजनीतिकरण की हर कवायद को सकारात्मक ही कहा जाएगा। मसलन, बदायूं कांड अंजाम होने में सहायक परिस्थितियां- पीड़ितों की अंधेरे में खुले में शौच की विवशता या पुलिस की दबंग अपराधियों के पक्ष में घातक निष्क्रियता- राजनीतिक एजेंडे पर आने पर ही बदलेंगी। सबसे पहले एक स्वीकारोक्ति दर्ज करनी होगी कि स्त्री की सुरक्षा उसे विवश बनाए रख कर नहीं की जा सकती। पुराना चलन रहा है कि स्त्री को कमजोर रखो और उसके परिवार और परिवेश के मर्द उसकी सुरक्षा करें। पर इससे स्त्री सुरक्षित नहीं की जा सकी। दिसंबर 2012 के बर्बर निर्भया प्रसंग के बाद यह जिम्मा ‘कठोर’ और ‘मजबूत’ कानूनों के हवाले करने का सिलसिला चल पड़ा है। पर स्त्री ज्यों की त्यों असुरक्षित है, क्योंकि वह अब भी परिवार और समाज की सत्ता-राजनीति का सबसे कमजोर मोहरा है। यानी मर्दों के अनुशासन में या कानूनों के घेरे में स्त्री खुद को सुरक्षित नहीं पा रही है। दरअसल, आज स्त्री की सुरक्षा की पूर्वशर्त है कि स्त्री खुद सशक्त हो। महज कड़े कानून बनाने से यह सशक्तीकरण नहीं हो सकता। महज समाज की सतह पर स्त्री की उपस्थिति बढ़ने से उसकी स्थिति मजबूत नहीं हो जाती। यह स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए कि लोहे की बेड़ियों को लोहे की धार ही काटेगी। स्त्री-सशक्तीकरण के मुद््दे को राजनीतिक एजेंडे पर लाए बिना स्त्री-सुरक्षा के लिए वांछित वातावरण बनाने की दिशा में और आगे बढ़ पाना संभव नहीं लगता। इस संदर्भ में दूसरा जरूरी पहलू स्त्री-सुरक्षा के सामंती तौर-तरीकों को नकारने की इच्छाशक्ति दिखाने का है। स्त्री-सुरक्षा को, राखी-व्यवस्था या पर्दा-व्यवस्था या ड्रेस-कोड, चारदीवारी या पहरेदारी, यहां तक कि पुलिस गश्त-नाकेबंदी जैसे उपायों के हवाले करने की व्यर्थता को स्वीकार कर ही हम आगे बढ़ सकते हैं। याद रखना चाहिए कि इन सामंती तौर-तरीकों से स्त्री सशक्त नहीं हुई है, बल्कि सामंती जीवन-मूल्य सशक्त हुए हैं। स्त्री के सशक्तीकरण के लिए कानून, न्याय और पुनर्वास से सकारात्मक मिलाप की गारंटी, पैतृक संपत्ति में बराबरी, जीवन-साथी चुनने की स्वतंत्रता, शिक्षा, कैरियर और मातृत्व चुनने का अधिकार, पारिवारिक-सामाजिक-आर्थिक निर्णयों में भागीदारी, आदि लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित रास्ते आक्रामक रूप से खोलने होंगे। इन रास्तों पर राजनीतिक पहल के अभाव को मीडिया या एनजीओ की मुहिम से भरा नहीं जा सका है। न विधिक दखल और न्यायपालिका की सक्रियता इस शून्य को भर पाई है। इस संदर्भ में सामाजिक चेतना की रुग्णता को देश भर में खाप मानसिकता से की जाने वाली ‘इज्जत’-हत्याओं और एसिड-हमलों में देखा जा सकता है। ऐसी हिंसा के लिए बदनाम राज्य हरियाणा की दो खापों ने ‘उदारवादी’ पहल के नाम पर, अंतर्जातीय विवाहों पर से सदियों पुरानी रोक हटाने का निर्णय लिया है। राजनीतिक, सामाजिक और मीडिया-टिप्पणियों में इसे प्रगतिशील कदमताल करार दिया गया, जबकि खापों ने वास्तव में अपने समाज में प्रचलित कन्या भ्रूण-हत्या और स्त्री-तस्करी पर मोहर लगाने का अपराध किया- क्योंकि व्यापक भ्रूण-हत्याओं से लड़कियों की कमी के चलते इन्हें पत्नियां आर्थिक और जातीय रूप से कमजोर क्षेत्रों/ तबकों से खरीद कर लानी पड़ रही हैं। तीसरा महत्त्वपूर्ण राजनीतिक मुद््दा बनेगा वर्तमान स्त्री संबंधी कानूनी प्रावधानों और प्रक्रियाओं के स्त्री के दृष्टिकोण से पुनरवलोकन का। अब तक हुआ यह है कि स्त्री-सुरक्षा को लेकर बने तमाम कानूनों ने राज्य को सशक्त किया है, न कि स्त्री को। अपराधियों की सजाएं बढ़ाने या कानून-न्याय तंत्र को कोसने से न पीड़ित को धक्के खाने से राहत मिलती है और न आगे के लिए स्त्री-विरुद्ध अपराधों पर रोक लगने में मदद। बस असंवेदी राज्य-तंत्र की शक्तियों में वृद्धि जरूर हो जाती है। जबकि स्त्री के नजरिए से बने कानूनों की कसौटी ही यह होगी कि पीड़ित को घर बैठे सहायता और तय समय-सीमा में राहत उपलब्ध हो; उसे न्याय और पुनर्वास समयबद्ध मिले। यही नहीं, कानून-व्यवस्था और न्याय-व्यवस्था से जुड़े किसी भी अधिकारी या कर्मचारी के लिए स्त्री-संवेदी प्रामाणित होना भी अनिवार्य होगा। समाज में स्त्री की पारंपरिक देवी-सती-रंडी-डाइन जैसी रूढ़-अतिरंजित छवियों को तोड़ना, उसके सशक्तीकरण की राह का चौथा चरण होगा। स्त्री की परजीवी, पराश्रयी, उपभोग्या, कुटनी जैसी छवि को मजबूत करने वाले तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक रूपों का तिरस्कार करना होगा। लोकप्रिय मीडिया माध्यमों जैसे अखबारों, पत्रिकाओं, टीवी, सिनेमा, इंटरनेट आदि पर पुरुषवादी नजरिए से स्त्री के अपमानजनक या गैर-बराबरी के चित्रण को नए सिरे से अपराध घोषित करना होगा। सास, बहू के साथ ‘साजिश’ को अनिवार्यत: नत्थी करने वाले सजा के पात्र होंगे। बलात्कार को ‘लड़के हैं गलती हो जाती है’ कह कर टालने वाले और छप्पन इंच के सीने से ‘मर्दानगी’ को महिमामंडित करने वाले राजनेता चुनाव से बहिष्कृत किए जाएंगे। सुरक्षा/ पुलिस बलों के मर्दाने मानक कूड़ेदान में होंगे। अंत में जरूरी है कि स्त्री के विरुद्ध नियमित रूप से होने वाली हिंसा को उसके केवल एक रूप- यौनिक हिंसा- के चश्मे से देखने का रिवाज बंद किया जाए। जो समाज बसों, कार्यस्थलों और निर्जन स्थानों में बलात्कार और छेड़छाड़ को लेकर इतना उद्वेलित हो उठता है, वह घर-घर में स्त्री के रोजमर्रा के उत्पीड़न और कार्यस्थलों पर स्त्रियों के साथ होने वाले भेदभाव पर चुप्पी साधे रहता है। स्त्री के जन्म से शुरू होकर भेदभाव और हिंसा का खेल कमोबेश उसके जीवन भर चलता ही रहता है। दरअसल, यौनिक हिंसा की जडेंÞ लैंगिक असमानता की जमीन से ही खुराक पाती हैं। परिवार से लेकर समाज तक सिखाई यही है कि हावी पुरुष अपनी मनमानी को तरह-तरह से स्त्री की कीमत पर व्यक्त कर सकता है। ‘मर्यादा’ और ‘इज्जत’ के नाम पर स्त्री चुपचाप सहे या फिर निर्भया, बदायूं, खाप, एसिड भुगते। क्या भारतीय स्त्री की दुनिया ऐसे ही चलने दी जाएगी? वंचना और हिंसा, अपमान और अन्याय के दंश से उसका जीवन मुक्त होगा? क्या सामाजिक-आर्थिक वंचनाएं, भ्रूण हत्याएं, एसिड हमले या खाप की सजाएं किसी सामूहिक बलात्कार से कम दरिंदगी के प्रसंग हैं? क्या हर मर्द को मर्दवादी स्वेच्छाचारी बना कर उसका परिवार ही उसे संभावित यौन-अपराधी के रूप में तैयार नहीं करता है? क्या स्त्री को एक संवेदी कानूनी और प्रशासनिक परिवेश मिलेगा? राजनीति को बदले बिना स्त्री का पारिवारिक, सामाजिक और कार्यस्थल का वातावरण बदलेगा? इसी विमर्श से स्त्री का राजनीतिक एजेंडा निकलता है। इसे लागू करने के लिए ग्राम पंचायतों और स्थानीय निकायों से लेकर विधानमंडलों तक में स्त्रियों का आरक्षण भी, मनोवैज्ञानिक कवायद ही सिद्ध होगा। स्त्रियों के सशक्तीकरण की राजनीति गांव-गांव, गली-गली, घर-घर पहुंचनी चाहिए।



दहेज कानून का दुरुपयोग




कानून का कबाड़ा

नवभारत टाइम्स | Jul 4, 2014, 

दहेज कानून का दुरुपयोग रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जो व्यवस्था दी है, वह बेहद महत्वपूर्ण है। इसके जरिए अदालत ने कार्यपालिका को भी एक संदेश देने की कोशिश की है, जिसे उसको अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। कानून के मिसयूज पर चिंता जताते हुए कोर्ट ने कहा कि इसको बनाया इसलिए गया था कि महिलाओं को प्रताड़ना से बचाया जा सके। लेकिन कुछ औरतों ने इसका नाजायज इस्तेमाल किया और दहेज उत्पीड़न की झूठी शिकायतें दर्ज कराईं। ऐसे कई मामलों में पति के मरणासन्न दादा-दादी और विदेश में रह रही बहन तक को निशाना बनाया जा चुका है। इसलिए कोर्ट ने सख्त हिदायत दी है कि दहेज उत्पीड़न के केस में आरोपी को जरूरी होने पर ही अरेस्ट किया जाए। अदालत ने साफ कहा कि जिन मामलों में 7 साल तक की सजा हो सकती है, उनमें गिरफ्तारी सिर्फ इस कयास के आधार पर नहीं की जा सकती कि आरोपी ने वह अपराध किया होगा। गिरफ्तारी तभी की जाए, जब इस बात के पर्याप्त सबूत हों कि आरोपी के आजाद रहने से मामले की जांच प्रभावित हो सकती है, वह कोई और अपराध कर सकता है, या फरार हो सकता है। कोर्ट का आदेश है कि दहेज केस में किसी को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को पहले केस डायरी में वजह दर्ज करनी होगी, जिस पर मजिस्ट्रेट द्वारा विचार किया जाएगा। अगर मजिस्ट्रेट ने जरूरी समझा तो वह गिरफ्तारी का आदेश दे सकता है। अगर किसी पुलिस अधिकारी ने कोर्ट के इस आदेश की अनदेखी की तो उसके खिलाफ विभागीय कार्रवाई की जानी चाहिए। दहेज उत्पीड़न विरोधी कानून के साथ विडंबना यह है कि आज तक इसका लाभ वास्तविक पीड़िताओं को कम ही मिल पाया है। नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की वर्ष 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में हर घंटे एक महिला दहेज हत्या का शिकार हो रही है। लेकिन दहेज प्रताड़ना के न जाने कितने मामले दर्ज ही नहीं होते। कानूनी पचड़ों या समाज में बदनामी के भय से प्रताड़ित महिलाएं सामने नहीं आतीं और घुट-घुटकर जीती हैं। दहेज लोभियों को सजा दिए जाने की दर भी बेहद कम है। जाहिर है, यह कानून अपने मकसद से भटक चुका है। शादी-ब्याह में दहेज के चलन का बना रहना ही इसका एक सबूत है। देश में कई और भी कानून ऐसे हैं जो ऊपरी तौर पर बेहद प्रगतिशील दिखते हैं पर या तो वे बेजान हो चुके हैं या उनका नाजायज इस्तेमाल हो रहा है। सरकार और विधायिका का जोर कानून बनाकर जनता की वाहवाही लूटने पर होता है। उसकी मॉनिटरिंग और समीक्षा की चिंता कोई नहीं करता। किसी को फिक्र नहीं कि कानून जिनके लिए बनाया गया है उन लोगों से उसका कोई रिश्ता बन पा रहा है या नहीं। वक्त आ गया है कि दहेज कानून के स्वरूप पर पुनर्विचार किया जाए और या तो उसमें संशोधन किया जाए, या उसकी जगह कोई नया कानून लाया जाए ताकि लाखों पीड़ित स्त्रियों की जीवन रक्षा हो सके और उन्हें इज्जत से जीने का अधिकार मिल सके।