Sunday 7 September 2014

महिला उत्पीड़न




वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर से

 पीड़िताओं को राहत

नवभारत टाइम्स | Jul 23, 2014

रश्मि गुप्ता
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों को देखकर लगता है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध में बढ़ोतरी हो रही है। पर इससे यह भी जाहिर होता है कि मामले अब दर्ज होने लगे हैं। औरतें अब चुप नहीं रहतीं। वे जुल्म का विरोध करती हैं, उनकी शिकायत करती हैं। गौरतलब है कि साल 2013 में महिलाओं के साथ हिंसा के देश भर में 309546 मामले दर्ज किये गए, जबकि 2012 में यह आंकड़ा 244270 था। और यदि राजधानी दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ हुई हिंसा के मामलों पर नजर डालें तो वर्ष 2012 में जहां 5959 मामले दर्ज हुए , वहीं 2013 में यह संख्या दोगुनी से भी अधिक बढ़कर 12888 पर पहुंच गई। दरअसल निर्भया कांड के बाद यह परिवर्तन जरूर आया है कि थाने मामला दर्ज करने से आसानी से इनकार नहीं कर पाते। महिलाओं के खिलाफ हुए अपराध में सजा की दर को देखें तो 2012 में जहां यह 21.3 फीसदी थी, वहीं 2013 में बढ़कर यह 22.4 हो गई। इसका अर्थ यह है कि महिला हिंसा के मामलों में एक चौथाई से भी कम लोगों को सजा हुई । निर्भया कांड के बाद जस्टिस वर्मा कमेटी ने कुछ कारगर सुझाव दिए थे, जिनमें एक प्रमुख सुझाव वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर खोलने का भी था। मध्य प्रदेश में हाल ही में राज्य सरकार के लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने एक स्वयंसेवी संगठन के साथ साझा अभियान के रूप में पहला वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर भोपाल के एक सरकारी अस्पताल में खोला। पिछले एक महीने में फोन करके डेढ़ हजार से अधिक महिलाओं ने इस सेंटर से संपर्क किया और अपनी समस्याएं बताईं जिनमें घरेलू हिंसा, बलात्कार, दहेज और साइबर अपराध के मामले अधिक थे। अच्छी बात यह है कि अधिकतर मामलों में प्रारंभिक परामर्श के बाद पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर मामलों की छानबीन शुरू कर दी। साथ ही वकीलों की एक टीम भी इस सेंटर पर महिलाओं की कानूनी मदद कर रही है। इस बार के आम बजट में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के सभी सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों में महिलाओं के लिए क्राइसिस मैनेजमेंट सेंटर खोलने की घोषणा की गई है। ये सेंटर महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अंतर्गत कार्य करेंगे। ऐसे सेंटर और जगहों पर भी खुलने चाहिए। वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर या क्राइसिस मैनजमेंट सेंटर के पीछे मकसद यह है कि हिंसा की शिकार महिला को न्याय के लिए दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर न होना पड़े। उसे एक ही स्थान पर पुलिस सहायता, मेडिकल परीक्षण एवं उपचार, परामर्श व कानूनी मदद मिल सके। हिंसा की शिकार महिलाओं को सबसे ज्यादा मुश्किल थाने में जाकर एफआईआर दर्ज करवाने में आती है। मध्य प्रदेश में एक स्वयंसेवी संगठन ने बलात्कार की शिकार 58 महिलाओं से बातचीत कर एक अध्ययन प्रकाशित किया था। इसमें लगभग तीन चौथाई महिलाओं ने कहा कि एफआईआर दर्ज करवाने में उन्हें एक सप्ताह से 15 दिन का समय लगा। अधिकतर मामलों में पुलिस ने जानबूझकर केस दर्ज ही नहीं किया। पर बुनियादी सवाल है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा में लगातार बढ़ोतरी हो क्यों रही है? क्या ऐसे सेंटरों के भरोसे हम मानने लगेंगे कि अब महिलाएं और लड़कियां महफूज हैं? वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर की जरूरत तो हादसे के बाद पड़ती है। लेकिन हादसा हो ही क्यों? क्या पुरुषवादी सोच हिंसा को अपने शक्ति प्रदर्शन का सबसे बेहतर जरिया समझती है? आज जरूरी है कि कानून तेजी से अपना काम करे ताकि अपराधियों में खौफ पैदा हो सके। पर आंकड़े यह भी बताते हैं कि महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा के अधिकतर मामले उनके अपने घरों या परिवारों से ताल्लुक रखते हैं। मतलब महिलाएं या बच्चियां अपने घर के भीतर भी सुरक्षित नहीं हैं। इसके लिए जरूरी है कि हम परिवारों का माहौल बदलें। पहले तो लड़के-लड़कियों में भेद खत्म हो। फिर लड़कों में स्त्री के प्रति सम्मान का भाव पैदा किया जाए। समाज को संबंधों के मामले में भी जनतांत्रिक बनाना होगा। 

यौन अपराध का ताना-बाना

अनंत विजय

जनसत्ता 25 जुलाई, 2014 : पिछले दिनों दो ऐसी खबरें आर्इं, जो किसी भी सभ्य समाज के मुंह पर तमाचे की तरह हैं। पहली खबर थी बंगलुरु के एक स्कूल में छह साल की मासूम के साथ वहीं के दो कर्मचारियों द्वारा बलात्कार की। दूसरी खबर बलात्कार की कोशिश और कत्ल की है। यह वारदात लखनऊ के पास मोहनलालगंज में हुई, जहां दो बच्चों की मां के साथ बलात्कार की कोशिश की गई और नाकाम रहने पर वहशियाना तरीके से पीट-पीट कर उसकी हत्या करने के बाद एक स्कूल के पास बगैर कपड़ों के फेंक दिया गया। एक शख्स ने इस महिला के साथ दरिंदगी की सारी हदें पार कर दीं। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से जो सच सामने आया वह दिल दहलाने वाला है। आरोपी ने महिला के गुप्तांग समेत पूरे शरीर पर गहरे जख्म किए। पुलिस के मुताबिक जिस अस्पताल में महिला काम करती थी उसके पास की इमारत के गार्ड ने इस वारदात को अंजाम दिया। इन दोनों खबरों का सरोकार देश के हर सूबे से है। हर घर से है। हर माता-पिता से है। बंगलुरु में छह साल की मासूम बच्ची के साथ स्कूल में बलात्कार की खबर  सामने आने के बाद वहां के अभिभावकों में यह चिंता बढ़ गई है कि पता नहीं स्कूल के वे कर्मचारी कब से और कितनी बच्चियों का यौन शोषण या फिर छेड़छाड़ कर रहे थे। क्या कुछ अन्य अभिभावकों को अपनी बच्चियों के साथ छेड़छाड़ की नापाक हरकतों की जानकारी थी और वे बदनामी के डर से मामले को छोटा मान कर भुला चुके थे! स्कूलों में बच्चों के साथ यौन शोषण के मामलों में अक्सर यह देखने में आता है कि जब माता-पिता शिकायत लेकर जाते भी हैं तो स्कूल प्रशासन जांच की बात कह कर मामले को दबा देता है। परोक्ष रूप से अभिभावकों को भी स्कूल का नाम खराब होने की दुहाई या धमकी देकर मुंह बंद रखने की हिदायत दी जाती है। बच्चों के खिलाफ यौन शोषण को रोकने के लिए लागू हुए प्रोटेक्शन आॅफ चाइल्ड अगेंस्ट सेक्सुअल अफेंस एक्ट (पॉक्सो) में आरोपियों को बचाने वालों या मामले को दबाने की कोशिश करने या फिर मामले बिगाड़ने वालों के लिए महज छह महीने की सजा का प्रावधान है, लेकिन स्कूल या संस्थान के खिलाफ किसी कार्रवाई का प्रावधान नहीं है। इस वजह से स्कूल प्रशासन ज्यादातर ऐसे मामलों को आपसी समझौतों से दबा देने की कोशिश करता है। समान्यतया अभिभावक भी बच्चों को स्कूल में आगे दिक्कत न हो, यह सोच कर हालात से समझौता कर लेते हैं। इसी समझौते से अपराधियों को ताकत मिलती है। उन्हें लगता है कि स्कूल परिसर में अपराध करने से प्रशासन उसको दबाने में जुट जाएगा। लिहाजा वे इस तरह के अपराध के लिए स्कूल के कोने-अंतरे को ही चुनते हैं। बंगलुरु के स्कूल में हुई वारदात में इस बात की भी पड़ताल होनी चाहिए कि क्या वहां बच्चियों के यौन शोषण या छेड़छाड़ की कोई शिकायत पहले आई थी और स्कूल प्रशासन ने कार्रवाई नहीं की थी। अगर ऐसी बात सामने आती है तो स्कूल के कर्ताधर्ताओं के खिलाफ भी पॉक्सो की धाराओं में मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए। इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि आरोपी ने स्कूल में बच्ची के साथ बलात्कार किया तो स्कूल प्रशासन को इस बात की भनक लगी थी या नहीं और उसकी क्या भूमिका थी। स्कूलों में बच्चों के यौन शोषण की वारदात को अंजाम देने वाले अपराधी दरअसल यौन कुंठा के शिकार होते हैं और मानसिक रूप से विकृत भी। मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक ऐसे अपराधी यौन आनंद के लिए बच्चों को अपना शिकार बनाते हैं। यह एक ऐसी मानसिकता है, जो अपराधी को वारदात अंजाम देने के बाद एक खास किस्म का रोमांच देती है। इस तरह के अपराधी, आम अपराधियों से ज्यादा शातिर होते हैं। उन्हें इस बात का अंदाजा होता है कि स्कूल उसके अपराध को तूल नहीं देगा। लिहाजा वे अपराध को स्कूल परिसर में अंजाम देने से नहीं हिचकते। चंद महीने पहले दक्षिणी दिल्ली के एक स्कूल के स्टाफरूम में कई बच्चियों के यौन शोषण की खबर आई थी। दिल्ली में ही एक कैब ड्राइवर महीनों तक एक बच्ची का यौन शोषण करता रहा था। सवाल यह है कि स्कूल की क्या जिम्मेदारी है। क्या कोई भी स्कूल यह कह कर पल्ला झाड़ सकता है कि अमुक शख्स ने वारदात को अंजाम दिया इसलिए कानून के हिसाब से उसको सजा मिलेगी। स्कूल की यह जिम्मेदारी भी है कि उसके परिसर में या फिर स्कूल आने और जाने के वक्त बस में बच्चे सुरक्षित रहें। बच्चों की समय-समय पर काउंसलिंग भी होनी चाहिए, ताकि उनके खिलाफ हो रहे इस तरह के अपराध उजागर हो सकें। बच्चों को इस तरह के अपराध के बारे में जागरूक करने के लिए स्कूल के साथ-साथ अभिभावकों को भी जिम्मेदारी लेनी होगी। अभिभावकों को तो अपराध के बाद साहस के साथ सामने आना होगा। इस तरह के अपराध को रोकने के लिए कानून से ज्यादा जरूरी है जागरूकता। स्कूलों में एक नियमित अंतराल पर शिक्षकों के लिए भी काउंसलिंग की व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि वे जागरूक हो सकें। कानून का भय और समाज में जागरूकता बढ़ा कर ही बच्चों के साथ यौन शोषण जैसे घिनौने कृत्य रोके जा सकते हैं। इस काम में देश के हर नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह अपनी भूमिका निभाए। अगर हम ऐसा नहीं कर पाए तो देश के भविष्य को बेहतर नहीं बना सकते हैं। बच्चों को देश में सुरक्षित माहौल देना हमारा दायित्व ही नहीं कर्तव्य भी है। मलेशियाई विमान हादसे में करीब तीन सौ लोगों के मारे जाने की खबर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मचे कोलाहल और शोरगुल के बीच दो दिनों तक राष्ट्रीय मीडिया इन दो खबरों को उस आवेग से नहीं उठा पाया, जिसकी ये हकदार हैं। देर से ही सही, मीडिया ने इस ओर ध्यान दिया। लखनऊ का हत्याकांड दिल्ली के निर्भया कांड जैसा ही जघन्य है। दिल्ली में निर्भया बलात्कार के वक्त इस घिनौनी वारदात के खिलाफ माहौल बनाने में मीडिया ने अहम भूमिका निभाई थी और लगातार कवरेज की वजह से सरकार बलात्कार के खिलाफ कड़े कानून बनाने को मजबूर हुई थी। सोनिया गांधी से लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक को सामने आकर बयान देना पड़ा था। बलात्कारियों को सख्त से सख्त सजा के लिए न्यायमूर्ति जेएस वर्मा के सुझावों पर कानून में बदलाव किए गए थे, पर चिंता का सबब तो कड़े कानून के बावजूद ऐसे अपराधों पर अंकुश नहीं लग पाना भी है। दरअसल, अगर गहराई में विचार करें तो बलात्कार हमारे समाज का एक ऐसा नासूर है, जिसका इलाज कड़े कानून के अलावा हमारे रहनुमाओं की इससे निबटने की प्रबल इच्छाशक्ति का होना भी है। बलात्कार से निबटने के लिए समाज के रहनुमाओं की इच्छाशक्ति तो दूर की बात है, जरा महिलाओं को लेकर उनके विचार देखिए। शिया धर्म गुरु कल्बे जव्वाद कहते हैं- लीडर बनना औरतों का काम नहीं है, उनका काम लीडर पैदा करना है। कुदरत ने, अल्लाह ने उन्हें इसलिए बनाया है कि वे घर संभालें और अच्छी नस्ल के बच्चे पैदा करें। राम जन्मभूमि न्यास के महंथ नृत्यगोपाल दास की बात सुनिए: महिलाओं को अकेले मठ, मंदिर और देवालय में नहीं जाना चाहिए। अगर वे मंदिर, मठ या देवालय जाती हैं तो उन्हें पति, पुत्र या भाई के साथ ही जाना चाहिए, नहीं तो उनकी सुरक्षा को खतरा है। अब जरा महिलाओं को लेकर राजनेताओं के विचार जान लेते हैं। लंबे समय तक गोवा के मुख्यमंत्री रह चुके कांग्रेस नेता दिगंबर कामत ने कहा था: महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए, क्योंकि इससे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। राजनीति महिलाओं को क्रेजी बना देती है। समाज के बदलाव में महिलाओं की महती भूमिका है और उन्हें आने वाली पीढ़ी का ध्यान रखना चाहिए। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव का बयान: अगर संसद में महिलाओं को आरक्षण मिला और वे संसद में आर्इं तो वहां सीटियां बजेंगी। पूर्व कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने तो सारी हदें तोड़ते हुए कहा था कि: बीवी जब पुरानी हो जाती है तो मजा नहीं देती है। इन बयानों को देख कर ऐसा लगता है कि महिलाओं के प्रति हमारे समाज का सोच धर्म, जाति, संप्रदाय से ऊपर उठ कर तकरीबन एक है और यही सोच महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध की जड़ में है। धर्मगुरुओं और नेताओं के इस तरह के बयानों से समाज के कम जागरूक लोगों में यह बात घर कर जाती है कि महिलाएं तो मजा देने के लिए हैं या मजे की वस्तु हैं। इस तरह के कुत्सित विचार जब मन में बढ़ते हैं तो वे महिलाओं के प्रति अपराध की ओर प्रवृत्त होते हैं। उन्हें इस बात से बल मिलता है कि उनके नेता या गुरु तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा देते ही नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय भी समय-समय पर बलात्कार के खिलाफ चिंता जता चुका है। कुछ वक्त पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने यह जानना चाहा था कि क्या समाज और व्यवस्था में कोई खामी आ गई है या सामाजिक मूल्यों में गिरावट आती जा रही है या पर्याप्त कानून नहीं होने की वजह से ऐसा हो रहा है या फिर कानून को लागू करने वाले इसे ठीक से लागू नहीं कर पा रहे हैं। कानून लागू करने वालों की बलात्कार को लेकर क्या राय है, वह मुलायम सिंह यादव बता चुके हैं। मुलायम सिंह यादव ने बलात्कार के बारे में बहुत ही लापरवाह तरीके से कहा कि लड़कों से गलतियां हो जाती हैं। उत्तर प्रदेश में जिस पार्टी की सरकार हो और उसके मुखिया कहें कि लड़कों से गलतियां हो जाती हैं तो फिर तो इस तरह की ‘गलतियों’ को पुलिस भी उसी आलोक में देखेगी और तफ्तीश करेगी। बलात्कार के खिलाफ कानून लागू करने वालों के बारे में सर्वोच्च न्यायालय का सवाल उचित है। इसके बारे में पूरे समाज को गंभीरता से विचार करना होगा। समाज के हर तबके के लोगों को बलात्कार के इस नासूर के खिलाफ एक जंग छेड़नी होगी, ताकि हमारी बेटियां और बहनें महफूज रह सकें। राजनीतिक बिरादरी को संवेदनशीलता दिखाते हुए इस बारे में आगे आकर पहल करनी होगी।

महिला सुरक्षा 

 Tue, 31 Dec 2013

महिला सुरक्षा के तमाम दावों व उपायों के बावजूद इस दिशा में बेहतर परिणाम सामने न आना चिंताजनक है। महिलाएं अब भी सुरक्षित नहीं हैं, न घर में और न ही बाहर। विकृत प्रवृत्ति के कुछ लोगों के कारण समाज के हर वर्ग को लगातार शर्मसार होना पड़ रहा है। दुखद यह है कि बच्चियां भी सुरक्षित नहीं हैं। इन वारदातों के पीछे अपनों का हाथ होने से मामले और संगीन बन जाते हैं। चंबा जिले में सात साल की उस मासूम बच्ची के साथ हुआ दु‌र्व्यवहार शर्मिदा करता है। ऐसा ही दर्द शिमला जिले के मतियाणा में नाबालिग छात्रा को सहपाठी ने दिया है। कुल्लू जिले में एक विवाहिता को पिता के हाथों दुष्कर्म का शिकार होना पड़ा। मामले और भी हैं, जिनकी गिनती नहीं की जा सकती। दुष्कर्म, छेड़छाड़ व उत्पीड़न ऐसे मामलों का लगातार सामने आना साबित करता है कि समाज में अभी भी एक वर्ग ऐसा है, जो महिला को सिर्फ भोग की वस्तु समझता है। उसके लिए महिलाओं का सम्मान, उनकी आजादी और अपेक्षाओं की कोई कद्र नहीं है। ऐसे लोगों को समझना होगा कि नारी केवल भोग की वस्तु नहीं बल्कि उसकी भी एक पहचान है, जिसे मिटाया नहीं जा सकता। आज हर क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर सफलता के सोपान चढ़ रही हैं। उनकी हस्ती को न नकारा जा सकता है और न ही मिटाया जा सकता है। शास्त्रों में भी जब नारी को देवी का दर्जा दिया गया है तो आचरण में उसे अपनाने में हिचक नहीं होनी चाहिए। दिल्ली दुष्कर्म मामले के बाद लागू हुए कड़े कानून का असर ऐसी प्रवृत्ति वाले लोगों पर नहीं हुआ है और निरंतर ऐसी वारदातें सामने आ रही हैं। हालांकि इस दौरान ऊना व मंडी जिलों में दुष्कर्मियों को कड़ी सजा देकर त्वरित न्याय दिलाया गया। सुंदरनगर में भी लड़की का पीछा करने पर केस दर्ज किया गया। लेकिन यह रोशनी की किरण अभी अधूरी है। इस दिशा में अभी भी काफी कुछ किया जाना शेष है और इसकी पहल महिलाओं को ही करनी होगी। घर हो या बाहर किसी भी प्रकार के उत्पीड़न के खिलाफ उन्हें आवाज बुलंद करनी होगी। चाहे वह कोई अपना हो या कोई दूसरा। उत्पीड़न के लिए दूसरों को दोष देने या उस दर्द को सहने से अच्छा है कि ऐसे लोगों को करारा जवाब दिया जाए, ताकि वे अपनी हरकतों से बाज आ सकें।

सराहनीय प्रयास
    Thu, 06 Feb 2014

महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों और छेड़छाड़ की घटनाओं को रोकना एक बड़ी चुनौती बन चुकी है। अपना राज्य भी इस मानसिक विकृति से दो-चार हो रहा है। आए दिनों ऐसी घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है, जो चिंताजनक है। वैसे तो महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है, लेकिन घर से बाहर छेड़छाड़ और वारदात की शिकार वे ज्यादा हो रही हैं। भीड़भाड़ वाले इलाकों और सार्वजनिक वाहनों में ऐसी घटनाएं अक्सर होती है। इसे रोकने के लिए कड़े कानूनी प्रावधान हैं। इसके अलावा सामाजिक स्तर पर ऐसे प्रयास हो रहे हैं, ताकि महिलाएं भयमुक्त वातावरण में रह सकें। राजधानी में गुलाबी ऑटो का परिचालन इस दिशा में एक छोटा किंतु सकारात्मक प्रयास कहा जा सकता है। इस ऑटो की खासियत यह होगी कि इसका परिचालन महिला चालक करेंगी और इसमें सिर्फ महिलाओं को ही बैठने की इजाजत मिलेगी। महानगरों में ऐसे प्रयोग होते रहे हैं, लेकिन रांची में इसे पहली बार आजमाया जा रहा है। चूंकि गुलाबी ऑटो का परिचालन महिलाएं करेगी, इसलिए इसमें यात्रा महिलाओं के लिए ज्यादा सुरक्षित होगी। हालांकि जनसंख्या के लिहाज से फिलहाल ऐसे ऑटो की संख्या नगण्य ही कही जाएगी, लेकिन शुरुआत हुई है तो इसकी संख्या में बढ़ोतरी भी होगी। हाल के दिनों में पुलिस की ओर से महिलाओं को भयमुक्त बनाने के कई प्रयास हुए हैं, जिसकी एक कड़ी में गुलाबी ऑटो भी है। इससे पूर्व नगर निगम ने महिलाओं के लिए विशेष बस की भी व्यवस्था कर रखी है, जो महत्वपूर्ण मार्गो पर चलती है। पुलिस ने ऐसे हेल्पलाइन नंबर भी जारी किए हैं, जिनपर आपात स्थिति में महिलाएं संपर्क कर सकती हैं। इसके अलावा भीड़भाड़ वाले इलाकों में स्पेशल पुलिस पेट्रोलिंग पार्टी भी ऐसे तत्वों पर निगाह रखती हैं।  जागरूकता बढ़ने से ऐसी घटनाओं में बेशक कमी आएगी, लेकिन हमें सामाजिक मोर्चे पर भी इससे जूझना होगा। राज्य के अन्य शहरों एवं इलाकों में भी कामकाजी और अध्ययनरत महिलाओं के खिलाफ अपराध की शिकायतें बढ़ी हैं। वहां भी सार्वजनिक यातायात का सुगम माध्यम महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखकर बनाना होगा। इसके लिए संस्थागत प्रयास बेहद जरूरी है। ऐसी घटनाएं सीधे तौर पर विधि-व्यवस्था को प्रभावित करती हैं। ऐसे तत्वों से भी कड़ाई से निपटना होगा, जो सरेआम ऐसी हरकत करने का दुस्साहस करते हैं। हाल के दिनों में इस प्रकार की घटनाओं का स्पीडी ट्रायल और दोषियों को कड़ा दंड दिलाना भी सकारात्मक संकेत है। महिलाओं के प्रति अपराध सभ्य समाज की परिकल्पना पर धब्बे सरीखा है और इसे दूर करने का हर उपाय सराहनीय है।

समाज और सरकार

Thursday,Jul 24,2014

सरकारों, नेताओं और सिस्टम को गलत कहना सबसे आसान है। अपनी हर समस्या के लिए इन्हीं तीन को जिम्मेदार ठहराते हुए लोग यह भूल जाते हैं कि समाज की बेहतरी में उनका भी कोई दायित्व बनता है। हम यह समझना ही नहीं चाहते कि सड़क, पानी, बिजली और इन जैसे जिन संसाधनों का हम उपयोग करते हैं, वे इस देश के हैं और इस नाते हमारा कोई कर्तव्य भी है। कानपुर में जिस तरह एक महिला को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया, उसके लिए कौन सी सरकार दोषी है। सरकार भी तो व्यक्तियों का समूह ही है। समाज से ही तो आते हैं सरकार के नुमाइंदे। किस किताब और किस पाठयक्रम में स्त्रियों के अपमान के लिए कहा गया है। अपना आचरण तो समाज को ही निश्चित करना होगा। कानपुर में महिला के साथ अपमानजनक व्यवहार समाज ने ही तो किया। किसी प्रकरण में उस महिला का अपराध कानून तय करेगा लेकिन उसके बहुत पहले मोहल्ले वाले ही उसे सजा देने लगें तो यह तो मध्ययुग में वापसी हुई। यह खेदजनक है और चिंताजनक भी। किसी स्त्री को सड़क पर घसीटना, उसके कपड़े उतारने की कोशिश निंदनीय है। इसके बाद आती है पुलिस की भूमिका। यह वह बिंदु है जहां हम सरकार और उसके राज की व्याख्या कर सकते हैं। खाकी वर्दी केसामने एक महिला बेपर्दा की जा रही थी और पुलिस वाले शांत दर्शक थे। किसी से यह नहीं हुआ कि बढ़कर लड़की पर एक कपड़ा डाल देते। उसे इसी अवस्था में पैदल चलाकर थाने ले जाया गया। अफसोस कि वहां महिला पुलिस भी थी। जिन्होंने यह कृत्य किया, जिन्होंने यह होने दिया और जिन्होंने अपनी आंख के सामने उस अर्धनग्न स्त्री को पैदल परेड करते देखा, वे सब समाज के अपराधी हैं। बेशक, इस दुराचरण में सरकार की गलती नहीं पर उसे वेतन भोगी पुलिस वालों से उनकी असभ्यता का हिसाब अवश्य लेना चाहिए। केवल एक सप्ताह पहले लखनऊ के मोहनलालगंज में भी पुलिस ने निर्वस्त्र मृतका की फोटो अपने सामने उतरवायी थीं और कानपुर में भी उसने लगभग वही काम किया। राज्य सरकार यदि ईमानदारी से काम करना चाहती है तो उसे सबसे पहले अपने उन अधिकारियों-कर्मचारियों के लिए सद् आचरण सिखाने की वर्कशाप करनी चाहिए जिनका जनता से सीधा वास्ता पड़ता है। शुरुआत पुलिस, शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग से की जानी चाहिए।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]
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सम्मान और सुरक्षा

Fri, 12 Sep 2014

महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा की रक्षा के उद्देश्य से प्रत्येक जिले में नए केंद्र खोलने का प्रस्ताव किया गया है। लगता है कि जनदबाव में ही सही, पुलिस महकमा और शासन के अफसर महिला अपराधों के प्रति धीरे-धीरे संवेदनशील हो रहे हैं। महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराध लंबे समय से बड़ी चिंता का विषय रहे हैं, लेकिन दिल्ली के निर्भया कांड के बाद देश भर में महिलाओं की सुरक्षा के लिए ठोस उपाय करने का गहरा जनदबाव रहा है। इसी का परिणाम था कि संसद को कानून में बदलाव के लिए बैठक बुलानी पड़ी और कई दूरगामी परिवर्तन किए गए। निर्भया फंड बना। कई अन्य उपाय भी किए गए। केंद्र की सहायता से निर्भया फंड बनने के दो साल बाद अब प्रदेश सरकार ने हर जिले में निर्भया केंद्र बनाने का फैसला किया है। निर्भया केंद्र के माध्यम से पीड़ित महिला को त्वरित सहायता के लिए वॉयस लॉगर के साथ टोल फ्री हेल्पलाइन, चिकित्सीय सहायता, तहरीर लिखकर एफआइआर दर्ज कराने में सहायता, विपरीत मानसिक और समाजिक परिस्थितियों से निपटने में मदद के साथ पंजीकृत वकीलों के पैनल से कानूनी सहायता दिलाने की मंशा है। उम्मीद है कि अगले सप्ताह में इस पर कोई ठोस उपलब्धि सामने आ सकती है। इन केंद्रों का मकसद दुष्कर्म, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं की मदद करना है। निर्भया केंद्र की ही तरह महिलाओं के लिए एक और योजना भी जल्द जमीन पर उतरने वाली है। छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न की घटनाओं की रोकथाम और ऐसी स्थिति का शिकार होने पर उन्हें त्वरित न्याय दिलाने के मकसद से हर जिले में 'महिला सम्मान प्रकोष्ठ' खोले जाने हैं। पुलिस महानिदेशक ने इस आशय का परिपत्र जारी किया है। इन प्रकोष्ठों में सीधे महिलाओं द्वारा महिलाओं की शिकायतों को सुनकर उनका निस्तारण किया जाएगा। ये कुछ ऐसे उपाय हैं जो महिलाओं को हौसला देने वाले हैं। लेकिन, इतने भर से काम चलने वाला नहीं है। पुलिस की छवि और कार्यप्रणाली बदलने की भी जरूरत है। यदि राजधानी की ही बात करें तो यहां कई वर्षो से महिला थाना बना है, लेकिन उससे कोई बहुत फर्क पड़ा हो ऐसा सुनने में नहीं आया। महिलाओं के लिए 1090 हेल्पलाइन बनी है। इसका प्रचार तो बहुत है, उपलब्धियां भी दिखती हैं, लेकिन नकारात्मक शिकायतें भी आती हैं। यदि यह सभी इकाइयां अलग-अलग काम करने के बजाए किसी एक छत के नीचे, एक कमांड में काम कर सकें तो ज्यादा सुविधाजनक होगा।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]
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स्त्री सशक्तीकरण की शर्तें

Monday, 16 June 2014

विकास नारायण राय

 जनसत्ता 16 जून, 2014 : बलात्कार और हत्या पर राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए बदायूं के कटरा सादतगंज गांव में पहुंचने वाले राजनीतिकों को उपेक्षा से नहीं लेना चाहिए। न इस जमात के दूर से ऊलजलूल अर्द्ध-सत्य बोलने वालों को। दरअसल, इन सतही कवायदों में स्त्री-सशक्तीकरण के पैरोकारों के लिए एक निहित संदेश है- स्त्री-विरुद्ध हिंसा के मसलों पर समग्र राजनीतिक एजेंडे की सख्त जरूरत है। मीडिया, एनजीओ और कानून के दम पर यह मुहिम एक सीमा से आगे नहीं जा पा रही। मर्द और औरत के असमान संबंधों को राजनीति के विषम शक्ति-संबंधों के समांतर भी रख कर देखना होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में बदायूं जैसे कांडों को जैसे महिला शौचालयों का अभाव संभव करता है, उससे कहीं बढ़ कर दबंगई को शह देने वाला राजनीतिक वातावरण भी। सीनाजोर यौनहिंसा न बदायूं तक सीमित है न उत्तर प्रदेश तक। न गावों तक और न किसी पार्टी-विशेष के शासन तक। लिहाजा, बजाय इसे महज कानूनी या प्रशासनिक सवालों में बांधे रहने के, इसके राजनीतिक एजेंडे पर भी बात होनी चाहिए- क्या स्त्रियों के प्रति संवेदनशील पुलिस, राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर है? क्या महिलाओं के लिए सुरक्षित शौचालय का मुद््दा राजनीतिक दलों की चुनावी प्राथमिकताओं में शामिल है? औपनिवेशिक तेवर से चलाई जा रही कानूनी और न्यायिक व्यवस्था के लोकतांत्रिकीकरण को लेकर उनकी राजनीतिक समझ क्या है? विधायिका में महिला आरक्षण को राजनीतिक दल कब तक अमली जामा पहना पाएंगे? स्थानीय निकायों में आरक्षित सीटों पर चुनी गई महिलाओं का राजनीतिक स्पेस उनके पतियों ने कैसे हथिया रखा है? समाज में अराजक यौन-विस्फोट की चुनौती के सामने यौन-शिक्षा का परिदृश्य नदारद क्यों है? इस बीच, बदायूं-दरिंदगी के क्रम में घोषित उत्तर प्रदेश सरकार का पांच लाख रुपए का मुआवजा, शिकार बहनों के लिए ‘न्याय’ का हिस्सा नहीं बना है। सरकारों के लिए पीड़ित पक्ष को आर्थिक मदद देना आसान होता है, पर न्याय करने में उन्हें समूची राजनीतिक सामाजिकता को शीशे में उतारना पड़ता है। मुआवजा एक सामान्य प्रशासनिक कदम है, जबकि ‘न्याय’ के दायरे में तो सत्ता-राजनीति की अग्नि-परीक्षा भी होगी। इसी समीकरण के चलते बदायूं में न प्रदेश सरकार का कोई समाजवादी मंत्री तुरंत पहुंचा और न केंद्र सरकार का कोई भाजपाई मंत्री। जो अन्य राजनीतिक वहां पहुंचे, उन्होंने भी स्वयं को ‘जंगल राज’ को कोसने और अपराधियों को कठोर दंड देने के कानूनी एजेंडे तक सीमित रखा। स्पष्ट है कि मर्दवादी सामाजिकता की खुराक पर पलने वाले नेताओं की दिलचस्पी स्त्री-सशक्तीकरण के राजनीतिक एजेंडे में नहीं होने जा रही।  बदायूं कांड ने अखिलेश सरकार के अक्षम प्रशासन को ही नहीं, उसकी लंपट राजनीति को भी बेपर्द किया है। इसे तार्किक परिणति तक ले जाने के लिए जनता को अगले चुनाव का इंतजार रहेगा। पर पुलिसिया मिलीभगत और न्यायिक निष्क्रियता के ऐसे मामलों में, मुआवजे के अलावा, कानून-व्यवस्था बेहतर करने के नाम पर प्रशासनिक फेरबदल, निष्पक्षता के नाम पर सीबीआइ जांच और जवाबदेही के नाम पर दोषियों, पुलिसकर्मियों को कठोरतम दंड सुनिश्चित करने के सिवा और क्या किया जा सकता है? स्पष्ट है कि पैसे और प्रभाव के दम पर की जाने वाली यौनिक सीनाजोरियां, आज के मीडिया युग में, किसी भी शासन की साख के ग्राफ को राजनीतिक रसातल में पहुंचा सकती हैं। यह भी स्पष्ट है कि कानून और न्याय की प्रणालियों का लोकतांत्रिकीकरण और उनमें कार्यरत कर्मियों की स्त्री-संवेदी उपस्थिति वे अनिवार्य पूर्वशर्तें होंगी जिनसे लैंगिक न्याय की राजनीति में लोकतांत्रिक संतुलन मजबूत होगा। स्त्री की सुरक्षा का सवाल उतना ही पुराना है जितना उसकी पुरुष-निर्भरता का इतिहास। सुरक्षा के नाम पर उसके लिए नैतिक और धार्मिक ‘कवच’ कम नहीं हैं; साथ ही पारिवारिक, सामाजिक, कानूनी और प्रशासनिक एजेंडों की भी भरमार है। पर ‘निर्भया’ या ‘बदायूं’ जैसी सामूहिक बलात्कार और हत्या की दरिंदगी का विस्फोट समय-समय पर याद दिलाते रहने के लिए पर्याप्त है कि ये एजेंडे यथास्थिति का तोड़ नहीं दे पाए हैं। दरअसल, इन लैंगिक नृशंसताओं को संभव करने की राजनीति की टक्कर का प्रति-एजेंडा दे सकने वाली राजनीतिक जमीन को तोड़ने का वक्त अभी आना है। इस हद तक, स्त्री-विरुद्ध हिंसा के राजनीतिकरण की हर कवायद को सकारात्मक ही कहा जाएगा। मसलन, बदायूं कांड अंजाम होने में सहायक परिस्थितियां- पीड़ितों की अंधेरे में खुले में शौच की विवशता या पुलिस की दबंग अपराधियों के पक्ष में घातक निष्क्रियता- राजनीतिक एजेंडे पर आने पर ही बदलेंगी। सबसे पहले एक स्वीकारोक्ति दर्ज करनी होगी कि स्त्री की सुरक्षा उसे विवश बनाए रख कर नहीं की जा सकती। पुराना चलन रहा है कि स्त्री को कमजोर रखो और उसके परिवार और परिवेश के मर्द उसकी सुरक्षा करें। पर इससे स्त्री सुरक्षित नहीं की जा सकी। दिसंबर 2012 के बर्बर निर्भया प्रसंग के बाद यह जिम्मा ‘कठोर’ और ‘मजबूत’ कानूनों के हवाले करने का सिलसिला चल पड़ा है। पर स्त्री ज्यों की त्यों असुरक्षित है, क्योंकि वह अब भी परिवार और समाज की सत्ता-राजनीति का सबसे कमजोर मोहरा है। यानी मर्दों के अनुशासन में या कानूनों के घेरे में स्त्री खुद को सुरक्षित नहीं पा रही है। दरअसल, आज स्त्री की सुरक्षा की पूर्वशर्त है कि स्त्री खुद सशक्त हो। महज कड़े कानून बनाने से यह सशक्तीकरण नहीं हो सकता। महज समाज की सतह पर स्त्री की उपस्थिति बढ़ने से उसकी स्थिति मजबूत नहीं हो जाती। यह स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए कि लोहे की बेड़ियों को लोहे की धार ही काटेगी। स्त्री-सशक्तीकरण के मुद््दे को राजनीतिक एजेंडे पर लाए बिना स्त्री-सुरक्षा के लिए वांछित वातावरण बनाने की दिशा में और आगे बढ़ पाना संभव नहीं लगता। इस संदर्भ में दूसरा जरूरी पहलू स्त्री-सुरक्षा के सामंती तौर-तरीकों को नकारने की इच्छाशक्ति दिखाने का है। स्त्री-सुरक्षा को, राखी-व्यवस्था या पर्दा-व्यवस्था या ड्रेस-कोड, चारदीवारी या पहरेदारी, यहां तक कि पुलिस गश्त-नाकेबंदी जैसे उपायों के हवाले करने की व्यर्थता को स्वीकार कर ही हम आगे बढ़ सकते हैं। याद रखना चाहिए कि इन सामंती तौर-तरीकों से स्त्री सशक्त नहीं हुई है, बल्कि सामंती जीवन-मूल्य सशक्त हुए हैं। स्त्री के सशक्तीकरण के लिए कानून, न्याय और पुनर्वास से सकारात्मक मिलाप की गारंटी, पैतृक संपत्ति में बराबरी, जीवन-साथी चुनने की स्वतंत्रता, शिक्षा, कैरियर और मातृत्व चुनने का अधिकार, पारिवारिक-सामाजिक-आर्थिक निर्णयों में भागीदारी, आदि लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित रास्ते आक्रामक रूप से खोलने होंगे। इन रास्तों पर राजनीतिक पहल के अभाव को मीडिया या एनजीओ की मुहिम से भरा नहीं जा सका है। न विधिक दखल और न्यायपालिका की सक्रियता इस शून्य को भर पाई है। इस संदर्भ में सामाजिक चेतना की रुग्णता को देश भर में खाप मानसिकता से की जाने वाली ‘इज्जत’-हत्याओं और एसिड-हमलों में देखा जा सकता है। ऐसी हिंसा के लिए बदनाम राज्य हरियाणा की दो खापों ने ‘उदारवादी’ पहल के नाम पर, अंतर्जातीय विवाहों पर से सदियों पुरानी रोक हटाने का निर्णय लिया है। राजनीतिक, सामाजिक और मीडिया-टिप्पणियों में इसे प्रगतिशील कदमताल करार दिया गया, जबकि खापों ने वास्तव में अपने समाज में प्रचलित कन्या भ्रूण-हत्या और स्त्री-तस्करी पर मोहर लगाने का अपराध किया- क्योंकि व्यापक भ्रूण-हत्याओं से लड़कियों की कमी के चलते इन्हें पत्नियां आर्थिक और जातीय रूप से कमजोर क्षेत्रों/ तबकों से खरीद कर लानी पड़ रही हैं। तीसरा महत्त्वपूर्ण राजनीतिक मुद््दा बनेगा वर्तमान स्त्री संबंधी कानूनी प्रावधानों और प्रक्रियाओं के स्त्री के दृष्टिकोण से पुनरवलोकन का। अब तक हुआ यह है कि स्त्री-सुरक्षा को लेकर बने तमाम कानूनों ने राज्य को सशक्त किया है, न कि स्त्री को। अपराधियों की सजाएं बढ़ाने या कानून-न्याय तंत्र को कोसने से न पीड़ित को धक्के खाने से राहत मिलती है और न आगे के लिए स्त्री-विरुद्ध अपराधों पर रोक लगने में मदद। बस असंवेदी राज्य-तंत्र की शक्तियों में वृद्धि जरूर हो जाती है। जबकि स्त्री के नजरिए से बने कानूनों की कसौटी ही यह होगी कि पीड़ित को घर बैठे सहायता और तय समय-सीमा में राहत उपलब्ध हो; उसे न्याय और पुनर्वास समयबद्ध मिले। यही नहीं, कानून-व्यवस्था और न्याय-व्यवस्था से जुड़े किसी भी अधिकारी या कर्मचारी के लिए स्त्री-संवेदी प्रामाणित होना भी अनिवार्य होगा। समाज में स्त्री की पारंपरिक देवी-सती-रंडी-डाइन जैसी रूढ़-अतिरंजित छवियों को तोड़ना, उसके सशक्तीकरण की राह का चौथा चरण होगा। स्त्री की परजीवी, पराश्रयी, उपभोग्या, कुटनी जैसी छवि को मजबूत करने वाले तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक रूपों का तिरस्कार करना होगा। लोकप्रिय मीडिया माध्यमों जैसे अखबारों, पत्रिकाओं, टीवी, सिनेमा, इंटरनेट आदि पर पुरुषवादी नजरिए से स्त्री के अपमानजनक या गैर-बराबरी के चित्रण को नए सिरे से अपराध घोषित करना होगा। सास, बहू के साथ ‘साजिश’ को अनिवार्यत: नत्थी करने वाले सजा के पात्र होंगे। बलात्कार को ‘लड़के हैं गलती हो जाती है’ कह कर टालने वाले और छप्पन इंच के सीने से ‘मर्दानगी’ को महिमामंडित करने वाले राजनेता चुनाव से बहिष्कृत किए जाएंगे। सुरक्षा/ पुलिस बलों के मर्दाने मानक कूड़ेदान में होंगे। अंत में जरूरी है कि स्त्री के विरुद्ध नियमित रूप से होने वाली हिंसा को उसके केवल एक रूप- यौनिक हिंसा- के चश्मे से देखने का रिवाज बंद किया जाए। जो समाज बसों, कार्यस्थलों और निर्जन स्थानों में बलात्कार और छेड़छाड़ को लेकर इतना उद्वेलित हो उठता है, वह घर-घर में स्त्री के रोजमर्रा के उत्पीड़न और कार्यस्थलों पर स्त्रियों के साथ होने वाले भेदभाव पर चुप्पी साधे रहता है। स्त्री के जन्म से शुरू होकर भेदभाव और हिंसा का खेल कमोबेश उसके जीवन भर चलता ही रहता है। दरअसल, यौनिक हिंसा की जडेंÞ लैंगिक असमानता की जमीन से ही खुराक पाती हैं। परिवार से लेकर समाज तक सिखाई यही है कि हावी पुरुष अपनी मनमानी को तरह-तरह से स्त्री की कीमत पर व्यक्त कर सकता है। ‘मर्यादा’ और ‘इज्जत’ के नाम पर स्त्री चुपचाप सहे या फिर निर्भया, बदायूं, खाप, एसिड भुगते। क्या भारतीय स्त्री की दुनिया ऐसे ही चलने दी जाएगी? वंचना और हिंसा, अपमान और अन्याय के दंश से उसका जीवन मुक्त होगा? क्या सामाजिक-आर्थिक वंचनाएं, भ्रूण हत्याएं, एसिड हमले या खाप की सजाएं किसी सामूहिक बलात्कार से कम दरिंदगी के प्रसंग हैं? क्या हर मर्द को मर्दवादी स्वेच्छाचारी बना कर उसका परिवार ही उसे संभावित यौन-अपराधी के रूप में तैयार नहीं करता है? क्या स्त्री को एक संवेदी कानूनी और प्रशासनिक परिवेश मिलेगा? राजनीति को बदले बिना स्त्री का पारिवारिक, सामाजिक और कार्यस्थल का वातावरण बदलेगा? इसी विमर्श से स्त्री का राजनीतिक एजेंडा निकलता है। इसे लागू करने के लिए ग्राम पंचायतों और स्थानीय निकायों से लेकर विधानमंडलों तक में स्त्रियों का आरक्षण भी, मनोवैज्ञानिक कवायद ही सिद्ध होगा। स्त्रियों के सशक्तीकरण की राजनीति गांव-गांव, गली-गली, घर-घर पहुंचनी चाहिए।



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